Book Title: Jain Dharm me Shramaniyo ki Gauravmayui Parampara Author(s): Ratanmuni Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ जैन धर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्पररा विदर्भ केसरी वाणिभूषण श्री रतनमुनि सदा से ही नारी का स्वरूप सुखियों में रहा है । पर उसकी कमनीयता के कारण उसे दूसरे दर्जे का स्थान मिला। उसका महत्त्व कम ग्रांका गया । जैन तीर्थंकरों का चिन्तन बड़ा स्पष्ट तथा महत्त्वपूर्ण रहा है । ऋषभदेव ने ब्राह्मी व सुन्दरी नाम की अपनी दो पुत्रियों का योग्य मार्गदर्शन कर उनकी सम्पूर्ण प्रतिभा का उपयोग बड़े ही श्रेष्ठ ढंग से किया । भगवान् महावीर का यह कथन बड़ा ही सारपूर्ण है कि"आत्मा, आत्मा ही है, वह न स्त्री न पुरुष हैं, न कुछ अन्य ।" ऋषभदेव के पूर्व किसी ने सोचा भी न था कि नारी को इतना अपूर्व सम्मान मिल सकेगा । माता मरुदेवी प्रथम सिद्ध होगी और जीवन की लिप्तता से परे बाह्मी तथा सुन्दरी क्रमश: प्रथम व द्वितीय श्रमणी बनाई जावेगी । सभी तीर्थंकरों में सबसे महत्त्वपूर्ण तीन लाख श्रमणियों का अस्तित्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय हुआ । यद्यपि उसके बाद वाले तीर्थंकरों में अधिक श्रमणियाँ भी रहीं पर एक प्रारंभ की दृष्टि से यह परिमाण विस्मय पैदा करने वाला है । श्रमणपरम्परा की दोनों शाखानों-जैन व बौद्ध में स्त्री को धर्माचरण का अधिकार रहा जब कि अन्य धर्मों में नारी का धर्म के अनेक क्षेत्रों में प्रवेश निषिद्ध था । बौद्धों में तो नारी का श्रमणी रूप जैन परम्परा के बहुत बाद का पर बुद्ध ने सर्वथा पतित नारियों को अपने धर्म में दीक्षित कर नारी को जो महत्त्व दिया वह उल्लेखनीय है । भगवान् महावीर ने भी निचले से निचले तबके को प्रोत्साहन दिया । चन्दना जैसी विक्रीत दासी को उन्होंने न केवल प्रव्रज्या दी वरन् उसे ३६००० साध्वियों की प्रमुख बनाया । नारी का विलासमय रूप श्रमणपरम्परा में अभीष्ट नहीं था । यह एक विराग परम्परा रही है । इसमें यदि उजागर हुआ है तो वह है नारी का मातृरूप । इस संदर्भ में नारी पुरुष से कई गुना श्रेष्ठ सिद्ध हुई है। हजारों पिता से एक माता गौरव में श्रेष्ठ होती है, इस तथ्य को प्रमाणित किया गया । मातृरूपा नारी के उपदेश व धर्मज्ञान की गूढ़ बातों को सबने अपनाया । यद्यपि पुरुषप्रधान समाज ने कई कुठाराघात भी किये व नारी को समग्रतः उभरने नहीं दिया, फिर भी नारी ने श्रेष्ठता की पताका फहराकर धर्मसंघ को उज्ज्वलता प्रदान की है । विभिन्न तीर्थंकरों के काल में श्रमणियों का परिमाण बहुत अधिक रहा । श्रमणों से वे दुगुनी तिगुनी तक रहीं। इससे सिद्ध होता है कि नारी की श्रेष्ठता से यह धर्म, यह दर्शन अभिषिक्त रहा । २४ तीर्थंकरों के धर्मपरिवार में श्रमणियों की संख्या इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only - धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है ary.orgPage Navigation
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