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४१० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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प्रकार के किसी ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते. इस प्रश्न का उत्तर जैन स्तोत्रों में जो दिया गया है वह बड़ा ही मनोग्राही तर्कसंगत एवं आकर्षक है. प्रख्यात तार्किक आचार्य समन्तभद्र इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने स्वयंभूस्तोत्र' में वासुपूज्य तीर्थंकर का स्तवन करते हुए कहते हैं
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे ,
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेतो दुरितांजनेभ्यः । हे नाथ ! आप तो वीतराग हैं. आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है. आप न अपनी पूजा करने वालों से खुश होते हैं और न निन्दा करने वालों से नाखुश, क्योंकि आपने तो वैर का पूरी तरह वमन कर दिया है. तो भी यह निश्चित है कि आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित को पापरूप कलंकों से हटा कर पवित्र बना देता है. इसका आशय है कि परमात्मा स्वयं यद्यपि कुछ भी नहीं करता फिर भी उसके निमित्त से आत्मा में जो शुभोपयोग उत्पन्न हो जाता है उसी से उसके पाप का क्षय और पुण्य की उत्पत्ति हो जाती है. महाकवि धनंजय इसी का समर्थन करते हुए अपने विषापहार नामक स्तोत्र में क्या ही मनोग्राही वाणी में कहते हैंउपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि त्वयि स्वभावाद् विमुखश्च दुःखम् ,
सदावदाता तिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि । हे भगवान् ! तुम तो निर्मल दर्पण की तरह सदा स्वच्छ हो. स्वच्छता तुम्हारा स्वभाव है. जो तुम्हें अपने निष्कपटभाव से देखता है वह सुख पाता है. और जो तुमसे विमुख होकर बुरे भावों से तुम्हें देखता है वह दुःख पाता है. ठीक ही है, दर्पण में कोई अपना मुंह सीधा करके देखता है तो उसे उसका मुंह सीधा दिखता है. और जो अपना मुंह टेढ़ा करके देखता है उसे टेढ़ा दिखता है. किन्तु दर्पण किसी का मुंह न सीधा करता है और न टेढ़ा. इसी प्रकार रागद्वेष रहित परमात्मा स्वयं न किसी को सुख देते हैं और न दुःख. वह तो प्रकृतिस्थ है. इस प्रकार के कार्यों में स्वयं उनका कोई भी प्रयत्न संभव नहीं है. सुख अथवा दुःख तो मन की अपनी ही वृत्तियों का परिणाम है. सजीव अथवा निर्जीव पदार्थ एवं अनुरक्त अथवा विरक्त व्यक्ति का दूसरे सजीव अथवा निर्जीव पदार्थों पर जो स्वयं प्रभाव पड़ता है वह मनुष्य के लिये नई चीज नहीं है. यह तो प्रत्येक मनुष्य के अपने अनुभव की वस्तु है. मनुष्य अपनी मनः प्रकृति के अनुसार दूसरों से प्रभावित होता है. किसी स्त्री का मनोहर चित्र किसी भी रागी पुरुष के आकर्षण का कारण बन जाता है. किन्तु यह कार्य वह चित्र नहीं करता, वह तो उसमें निमित्त मात्र है. चित्र में न किसी के प्रति राग होता है और न किसी के प्रति द्वेष. फिर भी यह आकर्षण चित्र का कार्य माना जाता है. यही बात परमात्मा की भक्ति के विषय में भी है.
भक्ति के सम्बन्ध में एकलव्य का उदाहरण संसार में अप्रतिम है. वह मिट्टी के द्रोणाचार्य से स्वयं पढ़कर संसार का अद्वितीय धनुर्धारी बना था. वह एक निष्ठ होकर मिट्टी के द्रोणाचार्य से पढ़ता रहा. उसकी मनःकल्पना में वह मिट्टी की मूर्ति साक्षात् द्रोणाचार्य थी. कहने की आवश्यकता नहीं है कि एकलव्य को संसार का अप्रतिम धनुर्धारी बनने में मिट्टी के द्रोणाचार्य का स्वयं कोई प्रयत्न नहीं था क्यों कि मिट्टी में किसी प्रकार की आकांक्षा सम्भव ही नहीं है, पर यह भी सही है कि मिट्टी का द्रोणाचार्य ही एकलव्य को ऐसा धनुर्धारी बना सका जिसकी धनुःसंचालन-कुशलता को देखकर द्रोणाचार्य का साक्षात् शिष्य अर्जुन भी दंग रह गया. संस्कृत-ग्रंथों में एक प्रयोग आता है-'कारीषोऽग्निरध्यापयति:' अर्थात् छाणों की आग पढ़ा रही है. एक गरीब छात्र के पास ओढ़ने के लिये कुछ भी नहीं होने से जाड़े की रातों में आग के सहारे से पढ़ता है और ' कहता है कि यह आग ही मुझे पढ़ा रही है. आग तो अध्यापक नहीं है फिर वह कैसे पढ़ा रही है ? उसमें इसलिये पढ़ाने का उपचार है कि अगर आग न हो तो वह छात्र पढ़ नहीं सकता. पढ़ने और अग्नि में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है. इसी तरह भक्त के आत्मोद्धार और भगवान् की भक्ति में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है. यद्यपि जनदर्शन मानता है कि भक्ति साक्षात् मुक्ति का कारण नहीं है, क्योंकि उससे 'दासोऽहम्' की भावना नष्ट नहीं होती, तो भी भक्ति का महत्त्व
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