________________ जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा 445 कहा गया है कि जो वृद्ध, रोगी आदि की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है। इस प्रकार भक्ति में सेवा की जो अवधारणा थी, उसने एक लोक-कल्याणकारी रूप ग्रहण किया, यही जैन भक्ति की विशेषता है। 1. सर्वार्थसिद्धि, संपा० पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1955, 6/24/12 / 2. कल्पसूत्रटीका, जिनविजयजी, प्रका० हीरालाल हंसराज जैन, जामनगर, 1939, पृ० 120 / 3. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2018, 4/39 / 4. आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980 / सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 1/14/20 // 6. ज्ञाताधर्मकथा, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 16/14 / 7. तत्त्वार्थसूत्र, विवे०सुखलाल संधवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी, 1976, 6/23 / आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका० रिलीजियस ट्रस्ट, बम्बई, 1981, 451-453 / 9. वही, 1190-1111 / 10. श्रीमद्भागवत् , गीताप्रेस, गोरखपुर, 2006, 7/5/23 / 11. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1974, 4/34 / 12. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1984, 28/35 / 13. वही। 14. नियमसार, अनु० आर्यिका ज्ञानमती, वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, हस्तिनापुर, 1984, 134-140 / 15. आवश्यकनियुक्ति, संपा० बी०के०कोठारी, प्रका०रिलीजिएस ट्रस्ट, बम्बई, 1981, 1110 / आनन्दघन ग्रन्थावली, संपा० महताबचन्द खारैड विशारद, प्रका० श्री विजयचन्द जरगड, जौहरी बाजार, ईमली वाले पंसारी के ऊपर, जयपुर, वि० सं० 2031, शांति जिनस्तवन, 16/11,12 / 17. वही, विमल जिनस्तवन- 13/17 / 18. वही, पद्मप्रभ जिनस्तवन, - 6/1,2 / 19. वही, 6/6 / 20. वही, ऋषभ जिनस्तन, 1/1,2 तथा वही पद 26, 49-32, 44-30 // Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org