________________ जैन धर्म में ईश्वरविषयक मान्यता | 299 इस प्रकार जैन धर्म में अर्हत् और सिद्ध पद हैं। उन तक जो जीव पहुँचता है, वही वस्तुतः ईश्वर माना गया है / प्रत्येक जीव में ईश्वर होने की शक्ति विद्यमान है / अनादि काल से जीव अपनी ईश्वरत्व शक्ति को कर्मबंध से प्रच्छन्न किए हुए है / जब और ज्यों ही कर्मबंध क्षीण होने लगते हैं तभी उस जीव में ईश्वर होने की शक्तियाँ उजागर हो जाती हैं और अंततः वह जीव ईश्वर बन जाता है। (31) जैनधर्मानुसार यह ईश्वर संसार से कोई संबंध नहीं रखते हैं। सृष्टि के सृजन अथवा संहार में भी इनकी कोई भूमिका नहीं है। किसी के द्वारा सम्मान और अपमान पर विचार नहीं करते। वे स्तुतिवाद और निन्दावाद से सर्वथा मुक्त रहने का भाव रखते हैं। उन्हें इससे न तो हर्ष ही होता है और न ही विषाद। ___ जैनधर्मानुसार सृष्टि स्वयंसिद्ध है। जीव अपने-अपने कर्मानुसार स्वयं ही सुख-दुःख पाते हैं। ऐसी दशा में मुक्तात्माओं और अर्हत् सिद्धों को इन सब झंझटों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जिनके सभी राग मिट गए हैं, जो वीतराग हैं, भला उन्हें तुम्हारी भलाई-बुराई से क्या प्रयोजन ? सार संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म में अर्हतों और मुक्त प्रात्माओं का उस ईश्वरत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे अन्य लोग संसार के कर्ता और हर्ता ईश्वर में कल्पना किया करते हैं। जैन दर्शन में इस प्रकार की कोई कल्पना ही नहीं की गई अपितु इस मान्यता के विरुद्ध सप्रमाण आलोचना अवश्य की गई है / यदि ईश्वर का यही रूप है तो जैन दर्शन को भी अनीश्वरवादी कहा जा सकता है। (32) इस प्रकार उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि बौद्ध और अन्य अनीश्वरवादियों की भांति जैन धर्म नहीं है / यहाँ ईश्वर तो है और उस संबंधी अपना दृष्टिकोण है, अपनी मान्यता है। विशेषता यह है कि यहां प्रत्येक प्राणी को प्रभ बनने की सुविधा प्राप्त है। अतः यहाँ विकास और प्रकाश पाने की पूर्णतः स्वतंत्रता है। ---'मंगल कलश', 394 सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only