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________________ चतुर्थ खण्ड / 174 यथा जलं जले क्षिप्तं, क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् / अविशेषो भवेत्तद्वद्, जीवात्मपरमात्मनः // हमारे देश में गत शताब्दियों में ईश्वर संबंधी मान्यता भ्रामक हो गई और मनुष्य अपने को ईश्वराधीन मानने लगा। "हरीच्छा बलीयसी" के वाक्य ने मानव को केवल . नियतिवादी बना दिया। उद्यम, साहस, पराक्रम पुरुषार्थ से उसका संबंध नहीं रहा / ईश्वर की मर्यादा बढ़ती रही और आत्मा की घटती रही। मानव के चिन्तन में "अमृतस्य पूत्रा:" के स्थान पर "पापोऽहं पापकर्माऽहं" "पापात्मा, पापसंभवः" का नाद गूंज उठा जिसने उसके प्रात्मगौरव का नाश कर दिया। यह विडम्बना रही, किन्तु जैनदर्शन ने सबसे बड़ी देन यह दी कि उसने मानव के प्रात्मगौरव की स्थापना की। देव की गुलामी से मुक्त किया "न हि, मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्" जैसे वाक्यों की सही सही स्थापना की। इसी संदर्भ में मुझे वैशेषिकदर्शन के एक विद्वान की रोचक घटना स्मरण पाती है जो जगन्नाथपुरी में दर्शन करने गया था किन्तु असमय होने से कपाट बन्द मिले तब उसने कपाट खोलने का प्राग्रह करते हुए कहा था : ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे। उपस्थितेषु बौद्ध षु, मदधीना तव स्थितिः॥ -उदयनाचार्य संभवतः इस प्रकार के उद्गार उस विचारसरणि के परिणाम थे जो जैनधर्म ने प्रवाहित की थी। मानव ने अपने आत्मसम्मान को ध्यान में रखकर यह श्लोक कहा होगा। जैनधर्म ने स्पष्ट रूप से बताया कि मनुष्य-जन्म देवत्व से भी बढ़कर है / मानव शुद्ध, शिवत्व प्रकट कर सकता है जबकि देव को भी मोक्ष तभी मिल सकेगा जबकि वह मनुष्य जन्म ले। मनुष्य कर्म में स्वतंत्र है। किसी देव, ईश्वर की गुलामी या उसकी खशामद की उसे आवश्यकता नहीं है। वास्तविक रूप से देखा जाय तो एशिया ही नहीं सारे विश्व के धर्माचार्य एक प्रकार से उस दैवी संदेश के वाहक थे। चाहे वह राम हों, कृष्ण हों, महावीर हों, बुद्ध हों, ईसा, मुहम्मद, जरथुस्त्र हों। इन सबने मानव को भला बनाने, उसे उन्नत बनाने तथा अपने शुद्ध रूप में शिवत्व प्रकट करने का मार्ग बताया था। जैसा कि एक जन अध्यात्मयोगी सन्त ने अपना मन्तव्य प्रकट करके कहा थाः राम कहो, रहमान कहो, कोई कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री। भाजनभेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूपी री / तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड स्वरूपी री। निजपद रमे सो राम कहिये, रहम करे रहमान री। करे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निर्माण री। परसे रूप पारस सो कहीये, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्मा री। इस विधि साधो, आप 'आनंदघन' चेतन मय निष्कर्ष री। -शुजालपुर मंडी (म.प्र.) 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211012
Book TitleJain Dharm me Ishwar ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size492 KB
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