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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / ३१६ श्राद्य जैन चिन्तक प्राचार्य उमास्वाति ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' (७।४) में अहिंसा व्रत के पालन के लिए साधनस्वरूप पांच भावनाओं का उल्लेख किया है-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईयसमिति, आदान-निक्षेपणसमिति पौर मालोकित पान भोजन इन भावनाओं का अर्थ मोटे तौर पर लें, तो हिंसा से बचने के निमित्त वचन के व्यवहार में सतर्क रहना या प्रमाद न करना ही वचनगुप्ति है, मन में हिंसा की भावना या संकल्प को उत्पन्न न होने देना मनोगुप्ति है, चलनेफिरने, उठने-बैठने आदि में जीवहिंसा न हो, यानी जीव को नष्ट न पहुँचे, इसका ध्यान रखना ईर्यासमिति है, किसी वस्तु को उठाने रखने में जीव हिंसा से बचना आदान-निक्षेपणसमिति है औौर निरीक्षण परीक्षण करके भोजन पान ग्रहण करना बालोकित पान भोजन है। इससे स्पष्ट है कि राग, द्वेष, प्रमाद आदि से सर्वथा रहित होने की स्थिति ही अहिंसात्मक स्थिति है। 1 'सर्वार्थसिद्धि' (७,२२/ ३६३ । १०) में कहा गया है; मन में राग आदि का उत्पन्न होना ही हिंसा है और न उत्पन्न होना प्रहिंसा और फिर 'धवलापुस्तक' (१४।५, ६, ९३।५।९० ) के लेखक ने कहा है, जो प्रमादरहित है, वह अहिंसक हैं और जो प्रमादयुक्त है, वह सदा के लिए हिंसक है । इसलिए धर्म को श्रहिंसालक्षणात्मक (परमात्म प्रकाशटीका २०६८) कहा गया है और हिंसा जीवों के शुद्ध भावों के बिना संभव नहीं है । श्रात्मरक्षा की दृष्टि से भी अन्य प्राणियों की हिंसा के धर्म का पालन प्रत्यावश्यक है जो प्रात्मरक्षक नहीं होता, वह पररक्षक क्या होगा ? 'ग्रात्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः जैसी नीति के समर्थक सर्वजीवदयापरायण भारतीय नीतिकारों की 'प्रात्मानं सततं रक्षेत्' की अवधारणा इसी महिसा सिद्धान्त पर भावित है। "ज्ञानार्णव " ( ८1३२) में जगन्माता के विमल व्यक्तित्व से हिंसा जगन्माता की श्रेणी में परिगणित है । इस ग्रन्थ में विमण्डित महिला के विषय में कहा गया है: अहिंसंव जगन्माताऽहिसेवानन्दपद्धतिः । अहिंसेच गतिः साध्वी श्रीरहिसेव शाश्वती । अर्थात् हिंसा ही जगत् की माता है; क्योंकि वह समस्त जीवों का परिपालन करती है | अहिंसा ही श्रानन्द का मार्ग है । अहिंसा ही उत्तमगति है और शाश्वती, यानी कभी क्षय न होने वाली लक्ष्मी है। इस प्रकार, जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में ही समाहित हैं। इसीलिए तो 'अमितगतिश्रावकाचार' (११।५ ) में कहा गया है कि जो एक जीव की रक्षा करता है, उसकी बराबरी पर्वतों सहित स्वर्णमयी पृथ्वी को दान करने वाला भी नहीं कर सकता । 'भावपाहुड' (टी० १३४ । २८३) में तो अहिंसा को सर्वार्थदायिनी चिन्तामणि की उपमा दी गई है। चिन्तामणि जिस प्रकार सभी प्रकार के अर्थ की सिद्धि प्रदान करती है, उसी प्रकार जीवदया के द्वारा सहल धार्मिक क्रियाओं के फल की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, प्रायुध्य, सौभाग्य, धन, सुन्दर रूप कीति प्रादि सब कुछ एक हिसाव्रत के माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जैनशास्त्रों में हिंसा की प्रचुर महता का वर्णन उपलब्ध होता है, जिसका सारतत्व यही है कि अहिंसा के पालन के लिए भावशुद्धि और ग्रात्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211009
Book TitleJain Dharm me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRanjan Suridev
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ahimsa
File Size524 KB
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