________________ 180 जैन धर्म को जनधर्म बनाने में महिलाओं का योगदान : आर्या प्रियदर्शनाश्री उस युग में महिलायें कितनी शिक्षित थीं, उनकी विचार शक्ति कितनी प्रबल थी, इसका अनुमान हम ऊपर लिखे उदाहरणों से भलीभाँति लगा सकते हैं। स्त्रियों की जागृति का प्रधान कारण भगवान महावीर का वैदिक धर्म (जातिवाद वा यज्ञाश्रयाहिंसा, स्त्री-शूद्र का धर्म में, वेद में अनधिकार, एक पतिव्रत धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्माचरण का निषेध) के विरुद्ध वह आन्दोलन था, जो उन्होंने अपनी कैवल्यप्राप्ति के बाद आरम्भ किया था / उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि सब जीव समान हैं, जाति कर्मानुसार होती है, यज्ञ की हिंसा नरक में जाने से नहीं बचा सकती, धर्म करने का अधिकार, शास्त्र पढ़ने का अधिकार, स्त्री हो चाहे पुरुष, ब्राह्मण हो या शूद्र सभी को है / मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक प्राणी को है, स्त्रीत्व या नपुंसकत्व अथवा पुस्त्व इसमें बाधक नहीं / आत्मा को मुक्त करने की साधना सभी करते हैं। उन्होंने अपने चतुर्विध संघ में जातिवाद को स्थान नहीं दिया। स्त्रियों संघ में साधु तो 14000 ही थे, साध्वियाँ 36,000 हजार थीं। इस तरह श्रावकों की संख्या 1,56,000 तो श्राविकाओं की 3,18,000 तक पहुँच गई थी। यों हम देखते हैं कि अबला कहलाने वाली वे नारियाँ मानवीरूप में साक्षात् भवानी थीं, देवियाँ थीं / उनकी पुण्य गाथाओं से भारतीय शोभा में चार चाँद लग हुए हैं / ऐसे ही संयमी जीवन को अपने ज्ञानालोक से आलोकित करने वाली महान प्रभावशाली खरतरगच्छीय साध्वी शिरोमणि पुण्यश्लोकश्री पुण्यश्री जी म. सा., आध्यात्म ज्ञान निमग्ना पूज्या प्र. श्री स्वर्णश्री जी म. सा., जापपरायण स्वनामधन्या पू. प्र. श्री ज्ञानश्री जी म. सा. एवं समन्वय साधिका जैनकोकिला पू. प्र. श्री विचक्षणश्री जी म. सा. थीं / जो त्याग-तप संयम की अनुपम आराधिका व शासन की प्रबल शक्तियाँ थीं। जिनशासन की जाहो जलाली के लिए व उसकी सतत् अभिवृद्धि के लिए उन्होंने ऐसे-ऐसे अद्भुत कार्य कर दिखाये जिन्हें सुनपढ़ व देखकर न केवल जैन समाज अपितु सर्व मानव समाज दंग रह जाता है / उनके उदात्त तेजस्वी व यशस्वी जीवन से जिनशासन का अणु-अशु आलोकित है। ऐसी ही वर्तमान में अनुपम गुणों से युक्त जैनशासन की जगमगाती ज्योतिर्मय दिव्य तारिका के रूप में हैं हमारी परमाराध्या प्रतिपल स्मरणीया, वन्दनीया, पूजनीया खरतरगच्छ के पुण्य श्रमणी वृन्द की प्रभावशाली प्रवर्तिका परम श्रद्ध या गुरुवर्या श्री सज्जनश्री जी म. सा.। जिनकी सरलता, सहजता, उदारकार्यक्षमता, निर्मल समता, निश्छलता, निस्पृहता, विशालहृदयता, अद्भुत प्रतिभा मानव मात्र को सहज ही आकर्षित करती है / जिन्होंने कई प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट कृतियों का परिष्कृत, परमार्जित व प्रांजल हिन्दी भाषा में अनुवाद कर जैन साहित्य शोभा की अभिवृद्धि में चार चाँद लगाये हैं। वे जिनशासन के साध्वी वन्द की मुकुटमणि हैं तथा त्याग, तप, वैदुष्य व वाग्मिता की जीवंत प्रतिमा हैं / आपश्री के अनुपम गुणयुक्त जीवन से तथा अद्भुत कार्यकलापों से न केवल गच्छ व समाज अपितु सम्पूर्ण जैन शासन गौरवान्वित है। जैन जगत की अनुपम थाती, आगमज्ञान की ज्योति हैं। मृदु मधुर अमतवागी से, जनमन पावन करती हैं। त्याग-तप-संयम की त्रिवेणी, तव अन्तर् में बहती है / उसी सरित की अजस्रधार में, हम भी पावन होती हैं / AWAmiu Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org