Book Title: Jain Dharm ko Jain Dharm Bananeme Mahilao ka Yogadan
Author(s): Priyadarshanaji Sadhvi
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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________________ जैनधर्म को जनधर्म बनाने में महिलाओं का योगदान वात्सल्यमूर्ति तुम रणचण्डी, तुम कोमल परम कठोर अति । तुम शान्तिमन्त्र तुम युद्धतन्त्र, तुम मानव की शिरमौर मति ।। जैनधर्म में महिलाओं को भी वही स्थान प्राप्त है जो पुरुषों को है। आद्यतीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महाप्रभु भगवान् महावीर वर्द्धमान ने दोनों को ही साधना के समान अधिकार व अवसर प्रदान किये थे। जब हम इतिहास का अनुशीलन करते हैं, तो ज्ञात होता है कि महिलाएँ कई गुणों में पुरुषों से भी अग्रगामिनी रही हैं । उनका महत्व कई स्थानों पर पुरुषों से विशेष विवद्ध हो गया है। शिक्षा में, संयम में, व्रतपालन में, सतीत्वरक्षा में, सेवा में, सहनशीलता और स्वार्थ त्याग में से सदा ही आगे रही और रहती है। सहनशीलता, लज्जा और सेवा तो उनके जन्मजात गुण हैं जो किसी में कम और किसी में अधिक प्रमाण में रहते ही हैं। दूसरे विशिष्ट गुण संस्कार व परिस्थिति पर अवलम्बित हैं। सतीत्वरक्षा के लिए भारत की नारियों का “जौहरतो संसार को आज भी चकित कर रहा है ।। अत्यन्त प्राचीन समय की ओर दृष्टिपात करें तो भगवान युगादिदेव ऋषभ महाप्रभु की दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी व सुन्दरी के दर्शन होते हैं । जो विद्या, शील और त्याग की जीती-जागती प्रतिमाएँ थीं, ब्राह्मी ने तो ऋषभदेव भगवान को केवलज्ञान होने पर ही दीक्षा धारण कर ली थी। किन्तु चक्रवर्ती भरत ने तत्कालीन प्रथानुसार सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने की अभिलाषा से त्यागमार्ग के अनुसरण से रोक लिया था। पर वे तो अपने पूज्य पिता के पद-चिह्नों पर चलने का दृढ़ संकल्प कर चुकी थीं। चक्रवर्ती उन्हें राज्य सम्पत्ति और संसार के भोगविलासों की ओर आकृष्ट करने में असफल रहे । सुन्दरी ने साठ हजार वर्ष तक आयंबिल तप करके अपने शरीर को सुखा डाला। चक्रवर्ती भरत को इस तप व त्याग की साक्षात् ज्वलन्त मूर्ति के आगे नतमस्तक होना ही पड़ा। भरत ने उसे सहर्ष साध्वी जीवन स्वीकार कर लेने की अनुमति दे दी । कुमारी “मल्लि" तो तीर्थंकर के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हुई थीं। ___जब हम प्रातः स्मरणीया, अदभुत प्रेमिका, सती शिरोमणी राजीमती का जीवन, जो शास्त्रों के स्वर्ण पृष्ठों पर अंकित है, अवलोकन करते हैं तो मस्तक श्रद्धा से अपने आप झक जाता है । उन्होंने पुनीत संयम के पथ पर चलते हुए रथनेमि को अस्थिर-विचलित होते हुए, उसकी वासना की दबी हुई चिनगारियों को उभरते हुए (१७८ ) आर्या प्रियदर्शनाश्री (पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी म० की विदुषी सुशिष्या) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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