________________ जैनदर्शन में सर्वज्ञत्त्व: है। वही सर्वज्ञ है। जैनदर्शन में सर्वज्ञत्त्व विषयक गहन चिन्तन किया गया है। वीतरागी सर्वज्ञ जैन ग्रंथों का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 5 प्राणवध आदि पापस्थानों के त्याग और ध्यान, अध्ययन यहां प्रत्येक जीव अपनी विशद्ध अवस्था में सर्वज्ञ है / इस दर्शन में आदि की विधि को कष कहते हैं। जिन बाह्य क्रियाओ से धर्म में चौवीस तीर्थङ्कर तो सर्वज्ञ हुए ही हैं परन्तु स्वयं बौद्ध दार्शनिक बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो वह छेद है। धर्मकीर्ति ने भी अपनी रचना में 'ऋषभ और वर्धमान की सर्वज्ञता जीवसम्बद्ध दुःख और बन्ध को सहना ताप है / इस प्रकार कषादि का उल्लेख किया है / इसके अलावा अन्य असंख्य आत्माएं भी से शुद्धधर्म धर्म कहलाता है / जिसमें रागादि सम्पूर्ण दोष क्षय हो चार घातिया कर्मों का प्रहाण कर सर्वज्ञ हई हैं / भविष्य में भी गए हैं, वही आप्त है | रागादि किसी जीव में सर्वथा नाश होना कर्मनाश करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और आज की अपेक्षा कोई भी भी सम्भव है / जिसप्रकार सूर्य को आच्छादित करनेवाले बादलों में भव्य जीव सर्वज्ञ बन सकता है। हीनाधिकता पायी जाती है इसलिए कहीं पर बादलों का सर्वथा जैनागमों में सर्वज्ञत्व नाश भी सम्भव है, उसी प्रकार जीवों में भी राग की न्यूनाधिकता जैन आगमग्रंथों में कहा गया है कि सर्वज्ञ त्रिकाल और देखी जाती है। कहीं पर राग आदि का सर्वथा विनाश भी सम्भव त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनके समस्त पर्यायों को जानता है है / जिसमें ये रागादि सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गए हैं वही आप्त 'सइ भगवं उप्पण्णाणाणदरिसी - सबलोए सब्बजीवे सव्वभावे भगवान सर्वज्ञ है / सम्मसमें जाणादि पस्सदि विहरदित्ति / कि हा यह मानना भी ठीक नहीं है कि रागादि अनादि हैं और कुन्दकुन्दाचार्य सर्वज्ञ का निरूपण करते हुए कहते है कि इनका सर्वथा नाश असम्भव है क्यों कि जैसे अनादि सवर्ण के मैल 'ज्ञानी लोको के समस्त द्रव्यों को जाननेवाला होता है / वह अनन्त का क्षार मिट्टी के पुटपाकादि योग्य साधनों को पाकर नष्ट हो पर्यायवाले एक द्रव्य को भी जानता है और एक साथ अनेक जाता है और बाहरी तथा भीतरी मल से विहीन हुआ अपने शुद्ध पर्यायीवाले अनन्त पदार्थों को भी जानता है / सुवर्णरूप में परिणत हो जाता है वैसे ही रागादि अनादि दोष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रलत्रय के अभ्यासरूप साधना से नष्ट आचार्यसमन्तभद्रकी दृष्टि में सर्वज्ञत्व हो जाते है / तात्पर्य यह कि द्रव्य तथा भावकर्मरूपमल से बद्ध समन्तभद्राचार्य ने सर्वज्ञ की सिद्धि करते हुए कहा है कि हुआ भव्य जीव सम्यग्दर्शन आदि योगसाधनों के बल पर उस कर्म 'सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को हम जैसे अनुमान से बन्ध को पूर्णरूप से दूर करके अपने शुद्धात्मरूप में परिणत हो जानते हैं, वैसे ही उन पदार्थो को प्रत्यक्ष से जानने वाला भी कोई ___ जाता है / अतः किसी पुरुष विशेष में दोषों तथा उनके कारणों व्यक्ति अवश्य होता है जिसने पदार्थों को जाना ही 'नहीं', प्रत्युत की पूर्णतः हानि होना असम्भव नहीं है / जिस पुरुष में दोषों तथा उसने उनका साक्षात्कार भी किया है, ऐसा व्यक्ति विशेष ही सर्वज्ञ आवरणों की यह निःशेष हानि होती है वह पुरुष आप्त अथवा निर्दोष सर्वज्ञ होता है / निम्नोक्त अनुमान प्रयोग से भी सर्वज्ञ की इस तरह सर्वज्ञत्व के विषय में अकलंकभट्ट, विद्यानन्द, सिद्धि होती है - प्रभाचन्द और हेमचन्द्रसूरिने आचार्य समन्तभद्र का ही अनुसरणकिया सर्वज्ञत्व की सर्वोत्कृष्टताः है / स्याद्वादमंजरीकार आचार्य मल्लिषेण ने भी आप्तमीमांसा की वन्य ज्ञान की हानिवृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्टरूप में नहीं युक्तियों का अनुसरण कर सर्वज्ञ की सिद्धि की है / वे कहते है कि कष, छेद और तापरूप उपाधियों से रहित धर्म को कहने वाला पायी जाती क्योंकि ये हानि और वृद्धि रूप है / तथा जिस प्रकार आगम ही प्रमाण है और इस आगम का कर्ता ही आप्त कहलाता यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः स प्रमाणमे व, कषच्छे दताप लक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात् / स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ 175 यः सर्वज्ञ आप्तो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् तद् यथा वही, पृ. 268 ऋषभवर्धमानादिरिति / न्यायबिंदु 3/131 देशतो नाशिनो भावा दृथ निखिलनश्वराः / ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिया मेघपङक्त्यादयो यद्वत् एवं रागादयोमताः / / वही, पृ. 176.. कहलाते है। यस्यच निरवयवर्तयते (रागादयः) दे. षट्खण्डागम पयडि. सूत्र 78 तथा मिलाइये - 'से भगवं अरहं विलीना, स एवाप्तो भगवान् सर्वज्ञः जिनकेवलीसव्वन्नू सव्वभावदरिसी - सबलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई वही तथा तुलना कीजिएजाळमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ / आचारांग सूत्र 2/3 जं तकालियमिदरं जाणादि जुगवं समंतदो सव्वं / दोषाऽऽवरणयोहानिनिःशेषाऽसत्यतिशायनात्। आधं विवित्तविसमं तं पाणं खाइयं भणियं / / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः तिक्ककालणिञ्चविसमं सयलं सव्वत्यसंभवं चित्तं / || आप्तमीमांसा कारिका 5 जुगवं जाणादि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं / / प्रवचनसार 1/47,51 अनादेरपि सुवर्ण मलस्य सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा / क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् / अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति || आप्तमीमांसा कारिका 5 स्याद्वादमंजरी, पृ. 176. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (22) दानी दीन सखा भुदा, दम दाक्षिण्य दयाल / जयन्तसेन सुदूर हो, इन से सब जंजाल / / www.jainelibrary.org Jain Education International - For Private & Personal Use Only