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जैनदर्शन में सर्वज्ञत्व : एक विश्लेषण |
(डॉ. श्री धर्मचन्द्र जैन)
भारतीय दर्शनों में दो ऐसे दर्शन, मीमांसा और चार्वाक, न्यायवैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञत्व : विशेष हैं. जो 'सर्वज्ञत्व' को स्वीकार नहीं करते किन्तु न्याय- न्याय वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को ही सर्वज्ञ के रूप में वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन 'सर्वज्ञ' एवं
स्वीकार किया गया है । इनके अनुसार ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् का सर्वज्ञत्व में पूर्ण श्रद्धा रखते हैं । ये सभी इस विषय में अपना
द्रष्टा, बोद्धा और सर्वज्ञाता है । इस प्रकार नित्यज्ञान का आश्रय अपना दृष्टिकोण रखते हैं किन्तु प्रश्न उठता है कि कोई सर्वज्ञ था।
होने से यही जानना चाहिए कि ईश्वर की सर्वज्ञता अनादि और या नहीं ? कोई सर्वज्ञ हो सकता है अथवा नहीं ? यहां इसी को
अनन्त है। विभिन्न दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में रखते हुए जैन दृष्टि से अध्ययन करना ही प्रस्तुत अनुबन्ध का विवेच्य विषय है
सांख्य-योगदर्शन में सर्वज्ञत्व : 'सर्वज्ञ' शब्द का अर्थ:
सांख्यदर्शन निरीश्वरवादी है किन्तु यहां तत्त्वज्ञान के अभ्यास
से कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की उपलब्धि स्वीकार की गई है । सर्वज्ञ का अर्थ है - सबको जानने वाला - सर्व जानातीति
योगदर्शन पुरुषविशेष को ही ईश्वर मानता है और उसमें सर्वज्ञत्व सर्वज्ञः । सर्वज्ञ का 'सर्व' शब्द ही यहां त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों
की निरतिशयता स्वीकार करता है ।१३ एवं उनके समस्त पर्यायों को दर्शाता है अर्थात् उनको एक साथ एक ही समय में साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति विशेष ही सर्वज्ञ
मीमांसा तथा वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञत्व :
मीमांसकों का कहना है कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों में कुछ विद्वान् अनेक विषयों के ज्ञाता को सर्वज्ञ बतलाते हैं।
पुरुष की ज्ञान प्रवृत्ति नहीं कर सकता कारण कि वह रागद्वेषादि कुछ एक मानते हैं कि जो सब शब्दों का ज्ञान रखता है वही सर्वज्ञ
दोषों से मुक्त नहीं है | अतःपुरुष का धर्मज्ञ होना असम्भव है। है ।' तत्त्वसंग्रहकार सर्वपद से 'भावाभावरूपं जगत्' अर्थ ग्रहण
उनका यहां धर्म से अभिप्राय वेद को प्रमाण मानने से है । धर्मज्ञान करते हैं और कहते हैं कि जो संक्षेप से इस भावाभाव रूप जगत्
में वेद ही अन्तिम है क्योंकि वही अतीन्द्रिय धर्म का प्रतिपादक है को जानता है, वही सर्वज्ञ है । वह यह भी मानते हैं कि जिसने
और वह अपौरुषेय है । इस तरह मीमांसक व्यक्ति में प्रत्यक्षगत जिस दर्शन में जितने-जितने पदार्थ बतलाए गए हैं उन-उन को सर्व धमज्ञता का निषधकर सवज्ञत्व का अभाव मानत ह । मान कर सामान्यरूप से उन्हें जाननेवाला भी सर्वज्ञ है ।।
_यहां आचार्य कुमारिल भट्ट सर्वज्ञत्व को स्पष्ट करते हुए वेद एवं उपनिषदों में सर्वज्ञत्व:
लिखते हैं कि 'सर्वज्ञत्व' के निषेध से मेरा तात्पर्य 'धर्मज्ञत्व' का
निषेध करना मात्र है । यदि कोई व्यक्ति धर्मातिरिक्त जगत् के | वेदों में सर्वज्ञ पद दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यहां देवताओं
अन्य समस्त पदार्थों को अवगत करता है तो वह अवगत करे के प्रशंसापरक प्रार्थनामंत्रों में आगत विश्वदेवान्, विश्वजित्',
किन्तु धर्म का ज्ञान वेद को छोड़कर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं विश्वविद्वान्, सर्ववित्, विश्वचक्षु, विश्वद्रष्टा' आदि शब्दों के
किया जा सकता । अनुमान आदि प्रमाणों से धर्मातिरिक्त निखिल अर्थ में ही सर्वज्ञत्व निहित है । 'सर्वज्ञता' इस पद का प्रयोग
पदार्थों को जाननेवाला यदि कोई पुरुष 'सर्वज्ञ' बनता है, तो बेशक उपनिषदों में अधिक बार किया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में तो 'आत्मानं विद्धि' कह कर सर्वज्ञ को 'आत्मज्ञ' कहा गया है । १० वहदारण्यक ४/५/७ जबकि जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में तत्त्वज्ञ को सर्वज्ञ माना गया है। " आगमाच्च दृष्टा बौद्धा सर्वज्ञाता ईश्वर इति ।
न्यायसूत्र ५/१/२१ पर वात्सायन भाष्य, पृ. ४८१
विशेष - न्यायवैशेषिक ईश्वर भिन्न योगियों में सर्वज्ञान स्वीकार करते हैं किन्तु तत्र यः सर्वशब्दज्ञः सः सर्वज्ञोऽस्तु नामतः । तत्त्वसंग्रह श्लो. ३/३० सभी योगी आत्माओं में नहीं, क्योंकि योगजन्य होने से उनका ज्ञान अनित्य भावाभाव स्वरूपं वा जगत् सर्वं यदोच्यते ।
होता है। तत्संक्षेपेण सर्वज्ञः पुरुषः केन वार्यते ।। वही, श्लो. ३/३२
दे. वाराणसी प्रशस्तपादभाष्य पृ. पदार्था यैश्च यावन्तः सर्वत्वेनावधारिताः
१५८/१५९ तथा न्यायमंजरी भा. पृ. तज्ज्ञत्वेनापि सर्वज्ञः ।। वही ३/३५
१७५ दे. ऋग्वेद १/२१/१; सामवेद १/१/ ३
१ २
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे दे. अथर्ववेद १/१३/४; ऋक् १०/९१/३ मा
नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद् दे. ऋग्वेद ९/४/८५, १०/२२/२ ।
विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ दे. अथर्ववेद १७/१/११
सांख्यसारिका ६४ ८ दे. ऋग्वेद १०/८१/३
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । योगदर्शन दे, अथर्ववेद ६/१०७/४
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श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(२०)
ठगई ठट्टा ठाकुरी, ठोठी ठणठण पाल । जयन्तसेन निष्फल यह, खोते अपना काल ।।
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