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जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के आर्थिक तत्त्व
--डा. नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी-एच० डी० [हिन्दी-विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
जीवन के चार पुरुषार्थ माने गये हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म के साथ अर्थ रखने का फलितार्थ यह है कि अर्थ का उपयोग धर्म द्वारा नियन्त्रित हो और धर्म अर्थ द्वारा प्रवृत्यात्मक बने। इस दृष्टि से धर्म-अर्थ का यह सम्बन्ध सन्तुलित अर्थव्यवस्था और सामाजिक समानता स्थापित करने में सहायक बनता है। धर्म अन्तर की सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने के साथ-साथ शरीर-रक्षण के लिए आवश्यक व्यवस्था भी देता है। इसी धरातल पर धर्म आर्थिक तत्त्वों से जुड़ता है।
जैन धर्म केवल निवृत्तिवादी दर्शन नहीं है। इसमें प्रवृत्तिमूलक धर्म के अनेक तत्त्व विद्यमान हैं। वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के उचित समन्वय से ही धर्म का लोकोपकारी रूप प्रकट होता है। कहना तो यह चाहिए कि धर्म का प्रवृत्ति रूप ही उसकी आन्तरिकता को, उसकी अमूर्तता को उजागर करता है। उदाहरण के लिए, अहिंसा धर्म की आन्तरिकता किसी को नहीं मारने तक ही सीमित नहीं है। वह दूसरों को अपने तुल्य समझने, उनसे प्रेम करने जैसे विश्वात्मभाव में प्रतिफलित होती है। इस दृष्टि से जैनधर्म में जहाँ एक और संसारत्यागी, अपरिग्रही, पंच महाव्रत धारी साधु (श्रमण) हैं वहीं दूसरी ओर संसार में रहते हुए मर्यादित प्रवृत्तियां करने वाले अणुव्रतधारी श्रावक (सद्गृहस्थ) भी हैं। जैनधर्माबलम्बी मात्र साधु ही नहीं हैं, बड़े-बड़े राजा-महाराजा, दीवान और कोषाध्यक्ष, सेनापति और किलेदार तथा सेठ-साहूकार भी इसके मुख्य उपासक रहे हैं। यही नहीं, वैभवसम्पन्नता, दानशीलता, धनाढ्यता और व्यावसायिक कुशलता में जैनधर्मावलम्बी सदा अग्रणी रहे हैं। ईमानदारी, विश्वस्तता और प्रामाणिकता के क्षेत्र में भी ये प्रतिष्ठित रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में यह निश्वित रूप से कहा जा सकता है कि जैनधर्म के आचार-विचारों ने उनकी व्यावसायिकता, प्रबन्धकुशलता और आर्थिक गतिविधियों को प्रेरित-प्रभावित किया है।
आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने राजनीति और अर्थनीति के धरातल पर अहिंसात्मक संवेदना से प्रेरित होकर जो प्रयोग किये, उनमें जैनदर्शन के प्रभावों को सुगमता से रेखांकित किया जा सकता है । आर्थिक क्षेत्र में ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त, आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं का संचय न करना, शरीर श्रम, गो-पालन, स्वादविजय, उपवास आदि पर बल इस दृष्टि से उल्लेखनीय है।
जैनदर्शन का मूल लक्ष्य वीतरागभाव अर्थात राग-द्वेष से रहित समभाव की स्थिति, प्राप्त करना है। जब तक हृदय में या समाज में विषम भाव बने रहते हैं, तब तक यह स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती। इस विषमत' के कई स्तर हैं, जैसे सामाजिक विषमता, वैचारिक मतभेद आदि, पर इनमें प्रमुख है-आर्थिक विषमता। आर्थिक वैषम्य की जड़ स्वार्थ है, और स्वार्थ के कारण ही मन में कषायभाव जागृत होते हैं और प्रवृत्तियाँ पापोन्मुख बनती हैं। लोभ और मोह पापों के मूल कहे गये हैं। भगवान महावीर ने इसे परिग्रह कहा है। यह अर्थ-मोह या परिग्रह कैसे टूटे, इसी के लिए जैनधर्म में श्रावक के लिए मुख्यत: बारह व्रतों की व्यवस्था की गयी है । समतावादी समाज-रचना के लिए आवश्यक है कि न मन में विषमभाव रहें और न समाज में असमानता रहे। इसके लिए धार्मिक और आर्थिक दोनों स्तरों पर प्रयत्न अपेक्षित हैं। जैनदर्शन में धार्मिक प्रेरणा से जो अर्थतन्त्र उभरा है, वह इस दिशा में हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है। इस दृष्टि से मुख्य अग्रलिखित तत्त्वों को रेखांकित किया जा सकता है
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