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चतुर्थखण्ड / १९६
की स्मृति दूसरे व्यक्ति को हो जाती अथवा उस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे स्वयं को भी न हो पाता। ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अराजकता और अव्यवस्था हो जाती। इसलिये ज्ञान और प्रात्मा का कथंचित् भेद और कथंचित् प्रभेद मानना ही उचित है। द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान और मामा का अभेद मानना चाहिये और पर्याय दृष्टि से दोनों का भेद मानना चाहिये |
आत्मा के पाठ भेदों की बात भगवती सूत्र में कही गई है। गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं-हे भगवन् ! आत्मा के कितने प्रकार हैं? महावीर उत्तर देते है-गौतम ! आत्मा को आठ प्रकार का कहा गया है । वे आठ प्रकार ये हैं- द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा । ये भेद द्रव्य और पर्याय दोनों दृष्टियों से हैं। द्रव्यात्मा द्रव्यदृष्टि से और शेष सात पर्यायदृष्टि से इस प्रकार की अनेक चर्चाएँ जैन दार्शनिक साहित्य में मिलती हैं, जिनसे द्रव्य और पर्याय के सम्बन्ध का पता लगता है । द्रव्य पर्याय एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की स्थिति असम्भव है । द्रव्य-रहित पर्याय की उपलब्धि नहीं हो सकती उसी प्रकार पर्याय रहित द्रव्य की उपलब्धि भी असम्भव है ! जहाँ पर्याय होगा वहां द्रव्य अवश्य होगा, जहाँ द्रव्य होगा वहाँ उसका कोई न कोई पर्याय अवश्य होगा ।
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भेदाभेदवाद
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दर्शन के क्षेत्र में भेद धौर प्रभेद को लेकर मुख्य रूप से चार पक्ष बन सकते हैं। एक पक्ष केवल भेद का समर्थन करता है, दूसरा पक्ष केवल प्रभेद को स्वीकृत करता है, तीसरा पक्ष भेद और अभेद दोनों को मानता है, चौथा पक्ष भेद - विशिष्ट अभेद का समर्थन करता है । भेद और प्रभेद का यथार्थ समन्वय जैनदर्शन की विशिष्ट देन हैं। जब हम भेदाभेदवाद की व्याख्या करते हैं, तो उसका अर्थ होता है भेदविशिष्ट प्रभेद और अभेदविशिष्ट भेद भेद और अभेद दोनों समान रूप से सत् हैं । जिस प्रकार अभेद वास्तविक है, ठीक उसी प्रकार भेद वास्तविक है । जहाँ भेद है वहाँ प्रभेद है, जहाँ प्रभेद है वहाँ भेद है । भेद और प्रभेद स्वाभाव से ही एक दूसरे से मिले हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वमाव से ही समान्य विशेषात्मक है — भेदाभेदात्मक है— नित्यानित्यात्मक है। जो सत् है वह भेदाभेदात्मक है । प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । वस्तु या तत्त्व को केवल भेदात्मक कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कोई भी भेद बिना प्रभेद के उपलब्ध नहीं होता। भेद और प्रभेद को दो मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते और उनकों जोड़ने वाला कोई अन्य पदार्थ भी उपलब्ध नहीं होता । तस्व कथंचिद् सदृश है, कथंचित् विसदृश विरूप है, कथंचित् वाच्य है-कथंचित् प्रवाच्य है, कथं चित् सत् है - कथंचित् प्रसत् है । ये जितने भी धर्म हैं, वस्तु के अपने धर्म हैं । इन धर्मों का कहीं बाहर से सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है। वस्तु स्वयं सामान्य और विशेषरूप है, भिन्न और अभिन्न है, एक और अनेक है, नित्य और क्षणिक हैं । द्रव्य सामान्य और विशेष दोनों का समन्वय है । कोई भी वस्तु इन दोनों रूपों के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती ।
द्रव्य का वर्गीकरण
द्रव्य के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। जहाँ तक द्रव्य सामान्य का प्रश्न है, सब एक हैं। वहाँ किसी प्रकार की भेद- कल्पना
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