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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म-सिद्धान्त : रत्नलाल जैन
निर्जरा के बारह भेद, अष्टांग योग :
निर्जरा-तप-भगवान महावीर ने कहा है-जिस तरह जल आने के मार्ग को रोक देने पर बड़ा तालाब पानी के उलीचे जाने और सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रव-पाप कर्म . के प्रवेश मार्गों को रोक देने वाले संयमी पुरुष के करोड़ों जन्मों के संचित कर्म तप के द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं । निर्जरा तप के बारह (छह बहिरंग और छह आभ्यन्तर) अंग हैं१. अनशन
उपवास आदि तप २. ऊनोदरी
कम खाना, मिताहार ३. भिक्षाचरी
जीवन निर्वाह के साधनों का संयम ४. रस-परित्याग
सरस अहार का परित्याग ५. कायक्लेश
आसनादि क्रियाएँ ६. प्रतिसंलीनता
इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी करना ७. प्रायश्चित्त
पूर्वकृत दोष विशुद्ध करना ८. विनय--
नम्रता ६. वैयावृत्य
साधकों को सहयोग देना १०. स्वाध्याय
पठन-पाठन ११. ध्यान
चित्तवृत्तियों को स्थिर करना १२. व्युत्सर्ग
शरीर की प्रवृत्ति को रोकना। अष्टांग योग-महर्षि पतंजलि ने लिखा है- "योग के अंगों का अनुष्ठान करने से--आचरण करने से अशुद्धि का नाश होने पर ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक प्राप्त होता है।"
योग दर्शन में योग के आठ अंग माने गये हैं१. यम २. नियम ३. आसन ४. प्राणायाम ५. प्रत्याहार ६. धारणा ७. ध्यान ८. समाधि । यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पाँच यम हैं। नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान-ये पाँच नियम हैं। आसन-निश्चल-हलन-चलन से रहित सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है । प्राणायाम-श्वास और प्रश्वास की गति का नियमन प्राणायाम है।
प्रत्याहार-अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है।
धारणा-किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है। ध्यान-चित्त में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है।
समाधि-जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। केवलज्ञान और विवेक जन्य ज्ञान और मोक्ष
केवलज्ञान-~-वाचक उमास्वाति लिखते हैं-"मोह कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है।
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