________________
जैनतर्कशास्त्र में हेतु प्रयोग
डॉ० दरबारीलाल कोठिया
भूतपूर्व रीडर, जैन-बौद्धदर्शन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
प्रमाणशास्त्र में अनुमान प्रमाणका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे उन पदार्थों का ज्ञान किया जाता है जो इन्द्रियगम्य नहीं होते । अतः इन्द्रियागम्य सूक्ष्म, अतीत-अनागत और दूर पदार्थ अनुमेय हैं और उनकी व्यवस्था अनुमानसे की जाती है । जहाँ किसी साधनसे किसी साध्यका ज्ञान किया जाता है उसे अनुमान कहा गया है । इसे और भी सरल शब्दों में कहा जाय तो यों कह सकते हैं कि ज्ञातसे अज्ञातका ज्ञान करना अनुमान है । उदाहरणार्थ नदीकी बाढ़ को देखकर अधिक वर्षाका ज्ञान, सूँड़को देखकर पानी में डूबे हाथीका ज्ञान, धुआँको अवगत कर अग्निका ज्ञान अनुमान है। इसे चार्वाकदर्शनको छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनोंने माना है ।
अनुमानके कितने अङ्ग (अवयव) हैं, इस विषय में भारतीय दर्शन एकमत नहीं हैं । यो कमसे कम एक और अधिक से अधिक दश अवयवोंकी मान्यताएँ दर्शनशास्त्र में मिलती हैं । एक अवयव बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति और दश अवयव सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकारने ४ स्वीकार किये हैं । जैन परम्परामें भी दश अवयव आचार्य भद्रबाहुने माने हैं । यतः हेतुको सभी दार्शनिकोंने अङ्गीकार किया है और उसे प्रधान अङ्ग बतलाया है । अतः यहाँ इस हेतुका ही विशेष विचार किया जावेगा ।
अनुमेयको सिद्ध करनेके लिए साधन (लिङ्ग) के रूपमें जिस वाक्यका प्रयोग किया जाता है वह हेतु कहलाता है । साधन और हेतुमें यद्यपि साधारणतया अन्तर नहीं है और इसलिए उन्हें एक-दूसरेका पर्याय मान लिया जाता है । पर ध्यान देनेपर उनमें अन्तर पाया जाता है । वह अन्तर है वाच्य वाचकका । साधन वाच्य है, क्योंकि वह कोई वस्तु होता है । और हेतु वाचक है, यतः उसके द्वारा वह कहा जाता है । अतएव 'साधनवचनं हेतुः' ऐसा कहा गया है ।
अक्षपादने हेतुका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि उदाहरण के साधर्म्य तथा वैधर्म्य से साध्य (अनुमेय ) सिद्ध करना हेतु है । उनके इस हेतुलक्षणसे हेतुका प्रयोग दो तरहका सिद्ध होता है । एक साधर्म्य और
१. आप्तमी० का० ५ ।
२. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् । – न्यायवि० द्वि० भा० २ १ १० मु० ३|१४|
३. हेतुबिन्दु, पृ० ५५ ।
४. युक्तिदी० का० १ की भूमिका, पृ० ३ तथा का० ६, पृ० ४७-५१ ।
५. दशवे० नि० गा० ४९, ५० ।
६. 'परमाणवः सन्ति स्कन्धान्यथानुपपत्ते:' इस अनुमान - प्रयोग में अनुमेय 'परमाणुओं' को सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त साधन 'स्कन्ध अन्यथा नहीं हो सकते' हेतु है ।
७. न्याय सू० १।१।३४, ३५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
विविध : २५९
www.jainelibrary.org