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HIप्रवर अभियाआनन्द अन्य
मा प्रवयव अभ श्रीआनन्द अन्य
। डा० मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल एम० एस-सी०, पी-एच० डी० [सहायक प्रोफेसर-बलवंत विद्यापीठ, रूरल इन्स्टीट्यूट बिचपुरी (आगरा)
गणित एवं विज्ञान सम्बन्धी अनेक पुस्तकों के लेखक]
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जैन साहित्य में क्षेत्र-गणित
यह सत्य है कि भारतवर्ष में क्षेत्र-गणित का प्रादुर्भाव शुल्व-सूत्रों (ईसा से लगभग ३००० वर्ष पूर्व) से ही हुआ है। इन सूत्रों में यज्ञ-वेदियों के बनाने की विधियों के साथ-साथ वर्ग, समचतुर्भुज, समबाहु समलम्बचतुर्भुज, आयत, समकोण त्रिभुज, समद्विबाह समकोण त्रिभुज आदि आकृतियों के उल्लेख भी दर्शनीय हैं। वैदिक परम्परा में भी क्षेत्र-गणित की झलक 'वेदांग ज्योतिष' आदि ज्योतिष के ग्रन्थों में देखने को मिलती है। परन्तु जैन-ग्रन्थों में क्षेत्र-गणित के सम्बन्ध में जैन-दर्शन के वर्णन पर विशेष सामग्री प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों में लोक का स्वरूप वणित पाया जाता है और उस निमित्त से सूर्य, चन्द्र व नक्षत्र तथा द्वीप, समुद्र आदि के विवरणों में क्षेत्र गणित की नाना आकृतियों का प्रचुरता से उपयोग किया गया है। 'सूर्यप्रज्ञप्ति,' 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' एवं 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' नामक उपांगों में तथा 'तिलोयपण्णति', 'षटखण्डागम की धवला टीका' एवं 'गोम्मटसार' व 'त्रिलोकसार' तथा उनकी टीकाओं में क्षेत्र-गणित का प्रचुर मात्रा में प्रयोग पाया जाता है और वह भारतीय प्राचीन गणित के विकास को समझने के लिये बड़ा महत्त्वपूर्ण है। 'षट्खण्डागम' में तो इस पर 'क्षेत्र-गणित' नाम से एक बड़ा भाग उपलब्ध है। इतना ही नहीं जैनाचार्यों के द्वारा प्रणीत गणित के स्वतंत्र ग्रन्थ अपना विशिष्ट महत्त्व बनाये हये हैं। इन ग्रन्थों में क्षेत्र-गणित पर व्यापक चिन्तन एवं मनन दर्शनीय है। उद्धरणतः महावीराचार्य (८५० ई०) का 'गणितसारसंग्रह' और उमास्वाति का 'क्षेत्रसमास' । यही कारण है कि क्षेत्र-गणित को अत्यधिकोपयोगी समझते हुये ही 'सूत्रकृतांग'' में इसको 'गणित-सरोज' की संज्ञा से अभिहित किया है। क्षेत्रों के प्रकार
'सूर्यप्रज्ञप्ति'२ (३०० ई०पू०) में आठ प्रकार के चतुर्भुजों का उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-समचतुरस्र, विषमचतुरस्र, समचतुष्कोण, विषमचतुष्कोण, समचक्रवाल, विषमचक्रवाल, चक्रार्धचक्रवाल और चक्राकार ।
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समचतुरन चित्र १
विषम चतुरस्त्र
चित्र २
समचतुष्कोण चित्र ३
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