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________________ परम्परा को पूर्ण सक्षम ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी विग्रन्था- थे। दूसरी शाखा जो कालान्तर में श्वेताम्बर नाम से चार्यों ने सुरक्षित बनाये रखा। प्रसिद्ध हुई वह अपनी परम्परा में सुरक्षित अवशिष्ट श्रुतागम को ही मान्य करती थी। उसने भी उसकी मौखिक द्वार से गुरु-शिष्य परम्परा में श्र तज्ञान वाँचना एवं संकलन करने का प्रयास किया / अतएव का प्रवाह तो चलता रहा, किन्तु अनेक कारणों से, उसमें एक-एक करके आगमों की तीन बाँचनाएँ हुईंचौथी शती ईसा पूर्व के मध्य के उपरान्त उसके विस्तार दो मथुरा में और एक वल्लभी में / सौराष्ट्र के वल्लभी में द्र तवेग से ह्रास होने लगा, मतभेद और पाठभेद नगर में आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में, भी उत्पन्न होने लगे। अतएव दूसरी शती ईसापर्व के पाँचवी शती ईस्वी के मध्य के लगभग सम्पन्न तीसरी मध्य के लगभग कलिंग चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल वाचना में ही इस परम्परा में सुरक्षित आगमों का की प्रेरणा से मथुरा के जैन संघ के आचार्यों ने श्रत संकलन एवं लिपिबद्धीकरण हुआ। यह भी मूल द्वादसंरक्षण की भावना से सरस्वती अन्दोलन चलाया, शांग श्रुत का अत्यन्त अल्पांश ही था। तथापि, आगमों जिसका प्रधान उद्देश्य आगम साहित्य को पुस्तकारूढ़ के इस प्रकार पुस्तकारूढ़ होने से उन पर रचे जानेवाले करना तथा धार्मिक पुस्तक प्रणयन था / ज्ञान की नियुक्ति, चूणि, भाष्य, टीका आदि अत्यन्त विपुल व्याख्या अधिष्ठात्री पुस्तकधारिणी सरस्वती देवी को उक्त साहित्य के लिए द्वार उन्युक्त हो गया। विविध विषयक, आन्दोलन का प्रतीक बनाया गया। फलस्वरूप ईस्वी विभिन्न भाषाओं और शैलियों में अनगिनत स्वतन्त्र सन के प्रारम्भ के आसपास दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द, रचनाएँ भी रची जाने लगी, और उभय सम्प्रदाय के लोहार्य, शिवार्य आदि ने परम्परागत श्रुत के आधार मनीषी आचार्य जैन भारती के भडार को उत्तरोत्तर से पाहुड़ आदि ग्रन्थ रचे, और गुणधराचार्य एवं धरसेना समृद्ध से समृद्धतर करते गये। चार्य ने तथा उनके सुयोग्य शिष्यों आचार्य आर्यमंक्षु, नागहस्ति, पुष्पदन्त, भूतबलि आदि ने अवशिष्ट आगमों के अस्तु, जैन धार्मिक साहित्य के आद्य प्रस्तोता तो महत्वपुर्ण अंशों का उपसंहार करके उन्हें पुस्तकारूढ़ ऋषभादि-महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर भगवान हैं... किया। उमास्वाति, विमलसूरि, समन्तभद्र, यतिवृषभ उनके बाद गौतमादि गणधर भगवान और भद्रबाहु आदि अन्य कई आचार्यपुंगवों ने भी धार्मिक साहित्य के प्रभृति श्रुतकेवलि हैं, और अन्त में कुन्दकुन्दादि-देवद्धि विविध अंगों का आगमाधार से प्रणयन किया। पर्यन्त श्रुतधर आचार्य पुंगव हैं। इस काल में जैन संघ दो भागों में विभक्त हो चुका था। दिगम्बर आम्यना के मुनि स्वयं को मूलसंधी कहते 240 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210932
Book TitleJain Sahitya ke Adya Puraskarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size488 KB
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