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७६ पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड और धार्मिक प्रगति के श्रेयोभागी वन, यह क्षोम-जसो बात तो नहीं होनी चाहिये । विभिन्न पंचकल्याणक महोत्सव, गोम्मटगिरि-जैसे तीर्थ स्थल निर्माण, गोम्मटेश्वर सहस्राब्दि समारोह, पच्चीस सौवां महावीर निर्वाणोत्सव के समान अगणित धर्म-प्रभावक कार्यो के लिये शासन की उदारता एवं सहयोग इसी प्रवृत्ति के प्रतिफल है। इन्हें मात्र क्षुद्रस्वार्थ या झूठी शोहरत नहीं मानना चाहिये ।' हां, यदि संघनायकों में यही प्रवृत्ति प्रमुख हो जावे, तो समाज के प्रबुद्ध श्रावक वर्ग को इसका नियमन करने में हिचक नहीं होनी चाहिये । सम्भवतः अभी आलोचना का युग ही आया है। आवश्यकता नियमन के युग की है।
राज्य, राजा, श्रेष्ठी आदि समाज हितैषी बनें, इस दृष्टि से संघनायक का उनसे संपर्क-सहयोग ठीक है। इसी आधार पर साधु, अनुष्टि रूप में, उनके यहाँ नियमानुकूल अशन-पान करे, यह भी औत्सर्गिक रूप में लेना चाहिये । वे भी पूरो समाज के ही एक अंग हैं । साधु-आचार के नियम उन पर भी लागू होते है।
साधु के आवास के सम्बन्ध में ग्राम या नगर में निवास की जो समय सीमा है, वह अब विचारणीय हो गई है। यदि भारतीय आंकड़ों का समुचित अवलोकन किया जावे, तो पता चलता है कि भारत के औसत ८० प्रतिशत गाँवों की आबादी आज भी ५०० से १००० के बीच आती है। इस आधार पर भारत के कुछ नगर निम्न आवास सीमा में आयेंगे ( गाँव की अबादी १०००)। एक लाख की आबादी वाले नगरों में भी साधु २-३ वर्ष तक एक-साथ नगर औसत जनसंख्या ग्राम-समकक्षता
आवास-सीमा दिल्ली ६० लाख
१७ वर्ष इन्दौर २० लाख
२००० कलकत्ता ९० लाख
२७ वर्ष बम्बई ८० लाख ८०००
२० वर्ष मद्रास २० लाख २०००
६ वर्ष आवास कर सकता है। यह परिकलन अतिरंजित लगता है पर आज सम्भव नहीं कि दिल्ली जैसे नगर को पांच दिन के धर्म लाम की सीमा में बांध दिया जावे । वर्तमान संघनायकों को इस विषय में नई दिशा का निर्देश देना चाहिये।
६ वर्ष
क्षेत्रों या गांवों के आवासकाल में नित्य क्रियाओं के लिये विशेष जटिलता नहीं आती, पर नगरों में एक समस्या बन गई है। दिगम्बर साधुओं में इस प्रश्न पर चर्चा कम है पर श्वेताबर संप्रादाय में अभी भी यह प्रम्न ज्वलत बना हुआ है कि फ्लश सिस्टम का उपयोग किया जाय या नहीं? अभी पूना में हुए सम्मेलन में इस विषय में स्व-विवेक के उपयोग से निदोष स्थिति का अनुसरण का ग्वाहरवां प्रस्ताव पास किया गया है। इसमें स्व-विबेक शब्द संघनायकों की अस्पष्ट दिशा का सूचक है। फ्लश लंटरीन के उपयोग की परोक्ष स्वीकृति स्वविवेक में है, पर प्रत्यक्ष स्वीकृति देने में हानि क्या है ? नगरीय आवासों में साधु के लिए इस सुविधा को सार्वजनिक स्वीकृति होनी चाहिये । इससे अनेक साधु-आवासों की जो अशुचिता समाचार पत्रों का विषय बन रही है, वह दूर हो जावेगो । जीवनरक्षी कार्यों में हिंसाअहिंसा का प्रश्न भी महत्वपूर्ण नहीं माना जाना चाहिये। साधु का आहार
जन परंपरा में साधु दो प्रकार से आहार ग्रहण करता है। (i) पाणिपात्र ( ii ) अ-पाणिपात्र या मिक्षापात्र । एक परंपरा में साधु घर-घर भिक्षा ग्रहण कर अपने आवास में आहार ग्रहण करता है। अन्य परम्परा में विशेष प्रक्रिया के पूर्ण होने पर एक ही घर में आहार-ग्रहण करता है । यद्यपि साधु को अनुद्दिष्ट मोजी होना चाहिये, पर यह शब्द आदर्श ही है, व्यवहार नहीं। जिन श्रावकों के मन में साधु के आहार- दान की रुचि होती है, वह पहले से उसी के अनुरूप तयारी करता है। अतः वर्तमान साधु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उद्दिष्ट भोजी ही रहता
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