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जैन साधु और वीसवीं सदी ७५
२] मूलगुण और उत्तर गुण
साधु के ३६ गुण
(श्वेतांबर) १-५. पांच महाव्रत
साधु के ३६ गुण
(दिगंबर) १-१२. तप
१-६. वाह्य तप
७-१२. अंतरंग तप १३-२२. वश धर्म २३-२७. पांच आचार
दर्शनाचार ज्ञानाचार तपाचार चारित्राचार
वीर्याचार २८-३३. छह आवश्यक
६-१०. पांच आचार ११-१५. पांच समिति
साधु के ३६ गुण ( आशाधर । श्रुतसागर) १-१२. तप १३-२०.
आचारवत्व श्रुताधार प्रायश्चित्तदाता निर्यापक आयापायज्ञ दोषाभापक अपरिस्रावी
संतोषकारी २१-२६. छह आवश्यक
१६-२०. पंचेन्द्रिय जय २१-२४. चार कषाय मुक्ति
३४-३६. तीन गुप्ति
२५-२७. तीन गुप्ति २८-३६. ९ वाड़युक्त
ब्रह्मचर्य पालन
२७-३६. वश स्थितिकल्प १. दिगंबरत्व, २. अनु० भोजी, ३. अशय्यासन, ४. अराजभुक् ५. क्रियायुक्त, ६. व्रती, ७. सद्गुणी, ८. प्रतिक्रमी, ९. षण्मासयोगी,१०.वर्षावास
होगी, जब राज्याश्रय को धर्म प्रचार का एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया।' विचारकों एवं सन्तों को इस प्रश्न ने सदैव आन्दोलित किया है कि धर्म राजाश्रित हो या राज्य धर्माश्रित हो ? जैनों ने यह अनुभव किया कि जब देशकाल का संक्रमण चल रहा हो और धर्म का अस्तित्व अग्नि परीक्षा में हो, तब सुरक्षा का एक मात्र सहारा राज्याश्रय ही है। दक्षिण में पल्लव राजाओं के युग में महेन्द्रवर्मा-1 के धर्म-परिवर्तन ने जैनों की उत्पन्न किये। इसके अनुरूप अन्य क्षेत्रों में भी जैनों की दशा बिगड़ी। आत्म-लक्ष्यी साधु इस स्थिति से विचलित न होते-यह क्या सम्भव था ? वे संघ संचालक एवं समाज के मार्गदर्शी जो हैं। उन्हें मूल सिद्धान्तों में अपवाद मार्ग का आश्रय लेना पड़ा । उपरोक्त नियम ( ii-iii ) में संशोधन हुआ। तब से आज तक राज्याश्रय एवं श्रेष्ठि-आश्रय की
ई है। यह अपवाद के बदले उत्सर्ग मार्ग का रूप ले चुकी है। एक परम्परा बदली, दुसरी परम्परा आई। परम्परायें स्थायी नहीं होती, अतः जो लोग परम्परावाद को धर्म का मूल मानते हैं, उन्हें इतिहास का अवलोकन करना चाहिये । साधु या संघनायक अच्छी परम्पराओं के पोषी होते हैं पर वे नयी परम्पराओं के प्रतिष्ठापक भी होते हैं।
साधु-संस्था के प्रति आदरभाव रखने के बावजूद भी, आज का प्रबुद्ध वर्ग वर्तमान साधु-समाज की उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियों पर काफी क्षुब्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन परम्परा के वर्तमान साधुओं में इन प्रवृत्तियों से पूर्णतः विरत संघनायक आचार्य विरला ही होगा। यह तो अच्छा ही है कि भारत धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है, अतः यह सभी धर्मों की प्रगति के प्रति उदारवृत्ति रखता है। अतः इस वृत्ति का लाभ अन्यों के समान जैन संघनायक भी लें
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