________________ 474 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 1) अव्यथ-परीषह, उपसर्ग आदि की व्यथा से पीड़ित होने पर चाद्ये पूर्वविदः - 9/39) श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो भी क्षोभित नहीं होना। अन्तर नहीं है, किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना चाहिए, इसे 2) असम्मोह-किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होना। लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं 3) विवेक- स्व और पर अर्थात आत्म और अनात्म के भेद को क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव समझना। भेदविज्ञान का ज्ञाता होना। हैं। बाद के दो, केवली (सायोगी केवली और आयेगी केवली) में सम्भव 4) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान त्याग दूसरे शब्दों में पूर्ण निर्ममत्व से युक्त होना। तक शुक्लध्यान है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती इन चार लक्षणों के आधार पर हम यह बता सकते हैं कि पूर्वधरों में सम्भव होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवार्ती किसी व्यक्ति में शुक्लध्यान संभव होगा या नहीं। केवली को होते हैं।८७ स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये गये जैन ध्यान साधना पर तान्त्रिक साधना का प्रभाव- पूर्व में हैं८५- 1. क्षान्ति (क्षमाभाव), 2. मुक्ति (निलोंभता), 3. आर्जव (सरलता) हम विस्तार से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ध्यान-साधना श्रमण परम्परा की और 4. मार्दव (मृदुता)। वस्तुत: शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन चार अपनी विशेषता है, उसमें ध्यान-साधना का मुख्य प्रयोजन आत्माविशुद्धि कषायों के त्याग रूप ही हैं, शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्पदशा या लोभ का त्याग है। आर्जव माया (कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तान्त्रिक साधना मान कषाय के त्याग का सूचक है। में ध्यान का प्रयोजन मन्त्रसिद्धि और हठयोग में षटचक्रों का भेदन कर इसी ग्रन्थ में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी कुण्डलिनी को जागृत करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति हुआ है, किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएं सामान्य रूप से प्रचलित 12 या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उनपर श्रमणधारा के अनुप्रेक्षाओं से क्वचित् रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं। स्थानांग में प्रभाव का ही परिणाम है, क्योंकि वैदिकधारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन शुक्लध्यान की निम्न चार अनुप्रेक्षाएं उल्लिखित हैं८६. ग्रन्थों में मंत्र सिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेतु विशिष्ट 1) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा-संसार के परिभ्रमण की अनन्तता का शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तान्त्रिक साधना वैदिक और विचार करना। श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन, 2) विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लिए मंत्र सिद्धि की जो चर्चा है करना। वह वैदिकधारा का प्रभाव है, क्योंकि उसके बीज अथर्ववेद आदि में भी 3) अशुभानुप्रेक्षा- संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार हमें उपलब्ध होते हैं, जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुिद्धि करना। की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह 4) अपायानुप्रेक्षा- राग, द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना। भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष रूप से जैनधारा शुक्लध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी पर भी हिन्दू तान्त्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव जैन परम्परा के निकट ही है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने आया है। गये हैं। वस्तुत: जैन तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और 1) सवितर्कसविचारविवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक-प्रथम ध्यान। षट्कर्मों के लिए मन्त्रसिद्धि के विधि-विधान हिन्दू तन्त्र से प्रभावित हैं। 2) वितर्कविचाररहित समाधिजप्रीतिसुखात्मक-द्वितीय ध्यान। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान-साधना, जो श्रमणधारा की अपनी 3) राग और विराग की प्रति उपेक्षा तथा स्मृति और सम्प्रजन्य से मौलिक साधना-पद्धति है, पर भी हिन्दू तंत्र-विशेष रूप से कौलतंत्र का युक्त उपेक्षास्मृतिसुखविहारी-तृतीय ध्यान। प्रभाव आया है। यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है। 4) सुखदुःख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-अदु:खात्मक जैन परम्परा में ध्यान-साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बनों उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त-चतुर्थ ध्यान। की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान-साधना में चित्त की इस प्रकार चारों शुक्लध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शब्दिक एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना अन्तर के साथ उपस्थित हैं। ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्मयोग परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि ध्यान को निम्न चार प्रकार में विभाजित किया गया थाजैन परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं, 1. अज्ञाविचय, 2. अपायविचय समापत्ति के निम्न चार प्रकार हैं- 1. सवितर्का, 2. निर्वितर्का, 3. 3. विपाक विचय 4. संस्थानाविय सविचारा और 4. निर्विचारा। इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यह भी शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के (शुक्ले स्पष्ट है कि धर्मध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org