________________ जैन साधना में ध्यान 473 3) विपाकविचय- पूर्वकर्मों के विपाक के परिणाम स्वरूप धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र८१ उदय में आनेवाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वहीं धर्मध्यान का वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना। दूसरे कुछ अधिकारी होता है। 1. सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) 2. दृष्टिकोण की विशुद्धि आचार्यों के अनुसार हेय के परिणामों का चिन्तन करना ही विपाकविचय (दर्शन), 3. सम्यक् चारित्र या आचरण और 4. वैराग्यभाव। हेमचन्द्र८२ धर्मध्यान है। ने योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे विपाकविचय धर्मध्यान को निम्न उदाहरण से भी समझा जा धर्मध्यान के लिए 1. आगमज्ञान, 2. अनासक्ति, 3. आत्मसंयम और सकता है 4. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्मध्यान के अधिकारी के मान लीजिए कोई व्यक्ति हमें अपशब्द कहता है और उन सम्बन्ध में तत्त्वार्थ का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बर मान्य अपशब्दों को सुनने से पूर्वसंस्कारों के निमित्त से क्रोध का भाव उदित पाठ के अनुसार धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय होता है। उस समय उत्पन्न होते हुए क्रोध को साक्षी भाव से देखना और में ही सम्भव है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यदि हम कहें तो सातवें क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का से लेकर ग्यारहवें और बारहवें तक में ही धर्मध्यान संभव है। यदि इसे परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको निरंतरता में ग्रहण करें तो अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय तक कोई पीड़ा हुई होगी, अत: यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की धर्मध्यान है। संक्षेप में कर्मविपाकों के उदय होने पर उनके प्रति साक्षी संभावना है। तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर मान्य मूलपाठ में धर्म ध्यान के भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं अधिकारी की विवेचना करने वाला सूत्र है ही नहीं। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की प्रतिक्रिया न करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है। दिगम्बर टीकाओं में पूज्यपाद अकलंक और विद्यानन्दि सभी ने धर्मध्यान 4) संस्थानविचय- लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्यरूप के स्वामी का उल्लेख किया है किन्तु उनका मंतव्य श्वेताम्बर परम्परा से से संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जाता है, किन्तु लोक एवं संस्थान का भिन्न है। उनके अनुसार चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक अर्थ आगमों में शरीर भी है। अत: शारीरिक गतिविधियों पर अपनी ही धर्म ध्यान की संभावना है। आठवें गुणस्थान से श्रेणी प्रारंभ होने के चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जा कारण धर्मध्यान संभव नहीं है। इस प्रकार धर्मध्यान के अधिकारी के सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थानविचय धर्मध्यान शरीर-विपश्यना प्रश्न पर जैन आचार्यों में मतभेद रहा है। या शरीर-प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्मध्यान के निम्न चार लक्षण (4) शुक्लध्यान- यह धर्मध्यान के बाद की स्थिति है। शक्लध्यान कहे गये हैं-७८ के द्वारा मन को शान्त और निष्पकम्प किया जाता है। इसकी अन्तिम 1) आज्ञारुचि- जिन आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। शुक्लध्यान चार करना तथा उसके प्रति निष्ठावान रहना। प्रकार के हैं८३-१. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-इस ध्यान में ध्याता कभी 2) निसर्गरुचि- धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रुचि होना। द्रव्य का चिन्तन करते करते पर्याय का चिन्तन करने लगता है और कभी 3) सूत्ररुचि- आगम शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रुचि पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लगता है। इस होना। ध्यान में कभी द्रव्य पर तो कभी पर्याय पर मनोयोग का संक्रमण होते 4) अवगाढ़रुचि- आगमिक विषयों के गहन चिन्तन और रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। 2. एकत्व-वितर्क-अविचारीमनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का गम्भीरता से योग-संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचारअवगाहन करना। ध्यान कहलाता है। 3. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती-मन, वचन और शरीर स्थनांगसूत्र में धर्मध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के उसमें चार आलम्बन बताये गये हैं७६- 1. वाचन-अर्थात् आगम साहित्य शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। 4. समुच्छिन्न-क्रियाका अध्ययन करना, 2. प्रतिपृच्छना-अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका निवृत्ति-जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। 3. जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती उस अवस्था को परिवर्तना-अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना 4. अनुप्रेक्षा-आगमों के समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ प्रथम अवस्था से क्रमश: आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है। कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कहीं गई में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि धर्म-साधना और योग-साधना हैं:- 1. एकत्वानुप्रेक्षा, 2. अनित्यानुप्रेक्षा, 3. अशरणानुप्रेक्षा और 4. का अन्तिम लक्ष्य है। संसारानुप्रेक्षा। ये अनुप्रेक्षाएँ जैन परम्परा में प्रचलित 12 अनुप्रेक्षाओं के स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के निम्न चार लक्षण कहे ही अन्तर्गत हैं। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में गये हैं८४. 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