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जैन साधना में तप के विविध रूप | ३७६
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(२५) नवनिधि व्रत- - नवनिधियों की नव नवमियों के उपवास ४ माह और एक पक्ष में करके फिर रत्नत्रय के तीन उपवास तीन तीजों को डेढ़ माह में करें। पाँच ज्ञान के उपवास पंचमी को ढाई महिने में करना चाहिए। चौदह रत्नों के उपवास किसी भी मास की चतुर्दशी से प्रारम्भ किए जा सकते हैं, सात माह में १४ चतुर्दशियों के उपवास करना चाहिए इस प्रकार एक वर्ष ३ माह और एक पक्ष में यह नव विधि व्रत पूर्ण होता है । (२६) अशोक वृक्ष तप व्रत- अषाढ़
शुक्ला पड़वा, दोज, तीज, चौथ और पंचमी तक एकासना तथा आयम्बिल एक वर्ष तक हर माह में किये जाते हैं, मनोनिग्रह के लिये यह व्रत किया जाता है ।
(२७) षड़काय आलोचना तप व्रत विधि - एकेन्द्रिय का एक उपवास, बेइन्द्रिय के दो उपवास, तेइन्द्रिय का तेला, चतुरेन्द्रिय का चोला तथा पंचेन्द्रिय का पंचोला और समुच्चय छः काय का छः उपवास करना चाहिए । 'खामी सब्वे जीवा "न केणई' इस गाथा का साढ़े बारह हजार जप करना चाहिए ।
(२८) पंचामृत तेला तप व्रत - किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की पड़वा से पाँच तेले किये जाते हैं । पारणे के लिए अभिग्रह रखने की मान्यता है ।
(२९) पाक्षिक तप व्रत विधि - शुभ दिन, मुहूर्त, वार देखकर गुरुमुख से पखवासा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णमासी तक लगातार पन्द्रह दिन के उपवास करे यदि एक साथ में शक्ति न हो तो प्रथम माह में सुदी प्रतिपदा को, दूसरे माह में बीज को इस तरह पन्द्रहवें दिन सुदी प्रत्येक व्रत के दिन पौषध करके देवसी रायसी प्रतिक्रमण करना चाहिए। सहित करना चाहिए ।
(३०) दीपावली व्रत कार्तिक कृष्णा अमावस्या को तीर्थंकर महावीर ने निर्वाण पद प्राप्त किया था, उन्होंने निर्वाण से पूर्व निरन्तर १६ प्रहर तक धर्मदेशना दी थी, स्मृति स्वरूप दीपावली के दिन उपवास किया जाता है। यदि दीपावली अमावस्या की हो तो तेरस से तथा चतुर्दशी की हो तो बारस से तेला व्रत कई मुनिराज व श्रावक करते हैं। दीपावली पर तेला करना अत्यन्त शुभ माना जाता है ।
(३१) कषाय-जय तप व्रत विधि - क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन की चौकड़ियों के चार चार भेद करने से कषायों के सोलह भेद होते है । इन सोलह कषायों को जय करके प्रकृतियों की उपशान्ति के लिये एकासन निविगय, आयम्बिल उपवास इस प्रकार सोलह दिन तक तप करे । 'ओ३म निरंजनाय नमः' इस पद के सवालक्ष जप मौन युक्त करना चाहिए ।
(३२) तीर्थंकर गोत्र कर्मोपार्जन करने की तप व्रत विधि - इस तप को किसी भी मास की शुक्ला प्रतिपदा से प्रारम्भ करना चाहिए । एक ओली को जघन्य दो मास में और उत्कृष्ट ६ मास में पूर्ण करे। यदि ६ मास में ओली पूर्ण नहीं कर सके तो ओली गिनती में नहीं गिनी जाती। बीसों ओलियों के बीस भेद हैं । चाहे बीसों दिन में एक ही पद जपें चाहे अलग-अलग । यथासम्भव जिस पद की ओली हो उसी पद की माला फिरानी चाहिए | तेले की शक्ति होने पर तेले से अथवा बेले से और बेले से भी सम्भव न हो तो चौविहार या तिविहार उपवास करके व्रताराधना करनी चाहिए । शक्ति न होने पर आयम्बिल तथा एकासना भी किये जा सकते हैं। चारसो तेले या बेले या उपवास करने से इसकी बीस ओलियाँ पूर्ण होती हैं जिस पद में जितने गुण हों उतने ही लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए । पद के गुणों का हृदय में स्मरण कर उदात्त स्वर से स्तुति करनी चाहिए। तप पूर्ति पर दयाव्रत पलाकर संस्थाओं को यथाशक्ति सहायता देनी चाहिए। इस प्रकार बीसों पदों की आराधना करने वाली आत्मा तीर्थंकर गौत्र कर्मोपार्जन करती है ।
तप ग्रहण करे और १५ उपवास करने की १५ को व्रत पूर्ण करे, मुनिसुव्रत स्वामी का सवा लक्ष जप मौन
बीसों पदों की २१-२१ मालाएँ फेरनी चाहिए तथा प्रत्येक पद के साथ 'ओम् ह्रीं' लगाना चाहिए पद और 'उनके गुणों की सारणी इस प्रकार है -
(१) नमो अरिहंताणं
(२) नमो सिद्धा
(३) नमो पवयणस्स (४) नमो आयरियाणं
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१२
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१५ ३६
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