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जैन समाज-दर्शन | ५७
प्राचार में अहिंसा है। अहिंसा और अनेकान्तवाद एक-साथ चलते हैं, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ६. मानव की प्रतिष्ठा
जैनदर्शन मानववादी है । इसके कई अर्थ हैं। पहला, वह मनुष्य से उच्चतर किसी प्राणी को नहीं मानता है। ६३ शलाका-पुरुष जैनधर्म के आदर्श हैं। इनमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव या अर्धचक्रवर्ती और नौ प्रति-वासुदेव आते हैं । ये सभी मनुष्य हैं । मनुष्य से भिन्न कोई ईश्वर या परमात्मा है-ऐसा जैनदर्शन नहीं मानता । दूसरे, वह प्रत्येक मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्र सत् मानता है और अनेक के अस्तित्व में विश्वास करता है । वह सर्वेश्वरवादी तो नहीं है, क्योंकि मानव आत्मानों के अतिरिक्त अन्य जीवों की
आत्माओं को भी वह मानता है। वस्तुतः उसे सर्वात्मवादी (पैन साइकिज्म) कहा जाता है । परन्तु इन सभी प्रात्माओं में मानव-प्रात्माएँ श्रेष्ठ हैं। तीसरे, मानव-मात्माओं में भी श्रेष्ठता का तारतम्य है। नैतिक और सामाजिक सिद्धान्त के रूप में जैनमत मानववाद को गहराई से स्वीकार करता है। वह मानव के सद्गुणों के विकास पर बल देता है।
पुनश्च मानववादी होते हये भी जैनमत जड़वादी या लोकायतवादी नहीं है। उलटे उसने लोकायतवाद का खण्डन करके सिद्ध किया कि जीव या जीवात्मा अजीव या जड़ से भिन्न है, क्योंकि उसका लक्षण चैतन्य है। जीव ज्ञानवान्, इच्छावान् और क्रियावान् है। अजीव ऐसा नहीं है। मनुष्य के अतिरिक्त भी जीव हैं किन्तु मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें बुद्धि और मुमुक्षा है जो अन्य जीवों में नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य का विकास हो सकता है। बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा-ये तीन मनुष्य के विकास की अवस्थाएँ हैं। जन्म से प्रत्येक मनुष्य बहिरात्मा है। साधना से वह क्रमशः अन्तरात्मा और परमात्मा होता है। परमात्मा होना ही प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है। इस तरह जैनमत के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा का सामर्थ्य है । किन्तु यहाँ परमात्मा का अर्थ जगत् का कर्ता या पिता नहीं है। कोई भी मानव परमात्मा हो सकता है और परमात्मा अनेक हैं। परमात्मा महान् आत्मा है। वह आदर्श मानव है।
जैनमत यद्यपि वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद को अनेकान्तवाद के आधार पर उदारतापूर्वक और सहिष्णुतापूर्वक स्वीकार करता है तथापि वह वर्ण और जाति को सिद्धान्ततः अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण और जाति के पक्ष में नहीं है । कर्म के आधार पर वह जाति और वर्ण को व्यवहार में स्वीकार करता है। परन्तु सिद्धान्ततः वह मनुष्यों में अध्यात्म के आधार पर केवल दो भेद करता है । ये दो भेद हैं---श्रावक और श्रमण । श्रावक गृहस्थ होता है और श्रमण विरक्त । श्रमण ऊर्ध्वरेता और महाव्रती होता है; श्रावक लोककर्मी और अणुव्रती होता है। इस प्रकार श्रावक और श्रमण दोनों की अलग-अलग संस्थाएँ या परिपाटियां हैं।-श्रमण की संस्था श्रावक की श्रद्धा और आस्था के लिए आवश्यक है। समाज में सदाचार की प्रतिष्ठा करना ही श्रमण का लक्ष्य होता है। वह धर्म के समस्त सद्गुणों की मूत्ति है। उसके चारित्र के दीप से ही प्रत्येक श्रावक का चरित्रदीप जलता है। यही कारण है कि श्रमणों की लोक-यात्रा के लिए श्रावकों को ध्यान रखना पड़ता है। श्रमण श्रावक-हितकारी होता है और श्रावक श्रमणोपासक होता है । यही दोनों
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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