________________
जैन समाज-दर्शन
10 प्रो. संगमलाल पाण्डेय, डी. लिट्.
जैनदर्शन के अनुशीलन से समाज-दर्शन के स्वरूप और आधार को जानने में बड़ी सहायता मिलती है। इस कथन को तर्कतः सिद्ध करने के लिए हम यहाँ जैनमत में उपलब्ध समाजदर्शन का विश्लेषण करेंगे और समाज के मूल उपादानों की खोज करेंगे। जैन विचारकों ने जिस समाज की अवधारणा की है उसके कुछ मूल प्राधार हैं जिन्हें हम यहाँ छह प्रतिष्ठाएं कहेंगे, क्योंकि 'प्रतिष्ठा' शब्द 'आधार' शब्द से अधिक सारगभित है। प्रतिष्ठा का अर्थ प्रागपेक्षा, प्राधार-स्तम्भ तथा मर्यादा होता है। ये छह प्रतिष्ठाएं हैं-(१) व्रत की प्रतिष्ठा, (२) श्रम की प्रतिष्ठा (३) अपरिग्रह की प्रतिष्ठा (४) अहिंसा की प्रतिष्ठा (५) अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा और (६) मानव की प्रतिष्ठा । जैनमत के अनुसार इन प्रतिष्ठानों पर ही मानवसमाज स्थित है। अत: मानव-समाज का स्वरूप समझने के लिए इन प्रतिष्ठानों का विश्लेषण करना आवश्यक है। इनसे सिद्ध होता है कि समाज केवल व्यक्तियों का बाह्य आरोपित संगठन नहीं है वरन समाज ब्रतधारी मानवों का अन्तःप्रतिष्ठित बाह्यस्वरूप है। १. व्रत की प्रतिष्ठा
कुछ पश्चिमी विद्वानों का कहना है कि समाज का प्राधार मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ तथा सहानुभूति, करुणा आदि संवेग हैं । जैन शब्दावली में कहा जाय तो इन पश्चिमी विचारकों के अनुसार समाज का आधार कषाय है, क्योंकि मूल प्रवृत्तियाँ और संवेग कषाय हैं। फिर कुछ पश्चिमी विद्वान् मानते हैं कि समाज का प्राधार संविदा (Contract) है और कुछ मानते हैं कि समाज का प्राधार मनुष्य की इच्छाओं को वैधानिक ढंग से सन्तुष्ट करने वाला राज्यादेश या संविधान है। किन्तु इन मतों के विपरीत जैनदर्शन मानता है कि समाज का मूलाधार व्रत है। प्रत्येक मनुष्य अपने तथा अन्य मनुष्यों के विकास के लिए कुछ व्रत लेता है। ऐसे व्रत बारह हैं। इनमें पांच अणुव्रत हैं, तीन गुणव्रत हैं और चार शिक्षाक्त हैं । ये बारह व्रत श्रावकाचार हैं अर्थात् साधारण मनुष्य के आचार हैं। इन व्रतों से मनुष्य अपनी जन्मजात प्रवृत्तियों, भावनामों और इच्छानों पर अंकुश लगाता है उनका परिमार्जन तथा परिष्कार करता है तथा अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति का सम्यक् प्रयोग करता है। इन्हीं व्रतों के फलस्वरूप एक मोर मनुष्य अपने को सच्चरित्र और सदाचारी बनाता है तथा दूसरी ओर वह समाज के स्वरूप का प्रादुर्भाव करता है। समाज मनुष्य की संस्कारित इच्छा का परिणाम है। फिर वह प्रत्येक मनुष्य को संस्कारित इच्छा का परिणाम है न कि मनुष्यों के प्रतिनिधियों की इच्छा का परिणाम है । अतएव समाज का आधार कषाय नहीं अपितु कषायाभाव है। इसी कषायाभाव को जैनदर्शन में गुणस्थान कहा गया है। गुणस्थान चौदह है। ये व्यक्ति के विकास की भूमिकाएँ हैं और साथ ही समाज की विभिन्न संस्थानों की आधारशिलाएँ भी हैं। वास्तव में गुणस्थान में श्रावकाचार और श्रमणाचार दोनों सम्मिलित हैं। प्रायः समाज का सम्बन्ध श्रावकाचार से
धम्मो दीयो संसार समुद्र में कर्म ही दीय है।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only