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मानव समाज में संस्कृति और सभ्यता ये दो शब्द विशेष रूप से प्रचलित हैं। प्रायः प्रत्येक पढ़ा लिखा व्यक्ति और प्रत्येक धनवान व्यक्ति अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानता है। आधुनिकीकरण के नाम पर पुरानी सही प्रथाओं को भी तिलांजलि देकर नए की अंधी होड़ में अपने को शामिल करते हुए व्यसन और फैशन का शिकार बनने में गर्व महसूस करता है इसीलिए चिन्तक लोग हमेशा से इस प्रश्न पर विचार करते रहे हैं कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहा जाए? दोनों में क्या अन्तर है ?
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जैन संस्कृति की विशेषताएँ
(साध्वी मंजुश्रीजी एम.ए.) wipe ya
डॉ. राजबली पाण्डेय ने उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है कि सभ्यता का अर्थ है Means of life तथा संस्कृत का अर्थ है Values of life अर्थात हमारे भौतिक जीवन का संबंध सभ्यता से है और हमारे आध्यात्मिक जीवन का संबंध संस्कृति से है। भौतिक जीवन जीने योग्य समाज मान्य समुन्नत साधन एवं बाह्य तौर तरीके 'सभ्यता' कहलाते हैं और आत्मिक सौन्दर्य के आधारभूत पारम्परिक जीवन-मूल्यों को 'संस्कृति' कहा जा सकता है।
आध्यात्मिक जीवन को संस्कारित करने में विचार और आचार का गहरा संबंध है। स्व-पर-हित साधन की भावना से जो विचार और तदनुरूप आचार की निष्पत्ति होती है, संस्कृति उसी का दूसरा नाम है। दूसरे शब्दों में, लोकमंगलकारी प्रयत्नों के मूल में निहित जीवन मूल्यों की समष्टि को 'संस्कृति' कहते हैं।
एक सभ्य कहलाने वाला डॉक्टर यदि अपनी पत्नी से नाखुश होकर उसे नींद की गोलियाँ खिलाकर सुला देता है, तो वह संस्कारवान नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्रोधावेश में यदि एक प्राध्यापक दूसरे प्राध्यापक की उंगलियाँ चबा डालता है, तो वह भी असभ्य और जंगलीपन का शिकार माना जाएगा। संस्कृति इस असभ्यता को दूर कर मानव मन को सबके हित की भावना से भर कर संस्कारवान बनाती है। अर्थात् मनुष्य के भीतर मनुष्यत्व का संचार करने का काम संस्कृति करती है । संस्कृति और सभ्यता ने मानव को संस्कारवान बनाने में अपना-अपना अमूल्य योगदान दिया है। इसीलिए मुनि विद्यानंदजी ने ठीक ही कहा है कि 'संस्कृति आत्मिक सौंदर्य की जननी है। इसी के अनुशासन में सुसंस्कार सम्पन्न मानवजाति का निर्माण होता है। "
प्रो. इन्द्रचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि विचारों की बहती हुई धारा का नाम संस्कृति है ।'
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यहाँ हमारे अभिमत से विचारों की बहती हुई शुद्ध धारा को संस्कृति कहना चाहिए। विचार धारा यदि अशुद्ध हो गई तो वह समाज में संस्कृति के स्थान पर विकृति फैलाने वाली बन जाएगी।
श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना
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आचार्य ह.प्र. द्विवेदी के इस
कथन से कि 'संस्कृति उच्चतम चिन्तन
का मूर्तरूप है।" हमारे अभिमत की पुष्टि होती है।
दो मुख्य संस्कृतियाँ
भारत में प्रागैतिहासिक काल से ही दो संस्कृतियों का प्राधान्य रहा है'ब्रह्म' भाव का पोषण करनेवाली
साध्वी मंजुश्रीजी एम.ए.
ब्राह्मण संस्कृति और सम, शम और श्रम का पोषण करने वाली श्रमण संस्कृति दोनों ही अपनी-अपनी एक विशिष्ट पहचान के साथ चली आ रही संस्कृतियां हैं। इस लम्बी यात्रा में वे एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। उदाहरण के रूप में संन्यास तथा जन्मान्तर के भवचक्र से निवृत्ति ब्राह्मण संस्कृति के लिए जैन संस्कृति की देन है और जैन संस्कृति के लिए देवी-देवताओं की उपासना ।
'संस्कृति' शब्द का व्युत्पत्यर्थ
डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार 'संस्कृति' शब्द के तीन घटक हैं- सम् + स् + कृति + । सम् का अर्थ है - सम्यक्, सका अर्थ है- शोभादायक तथा कृति का अर्थ है- प्रयत्न इच्छापूर्वक किया गया व्यापार । इस प्रकार संस्कृति का सम्पिण्डित रूप में शब्दार्थ हुआ शोभादायक विवेक सम्मत प्रयत्न ।'
प्राणिमात्र में अनादिकाल से कर्म की विभावजन्य स्थितियों के कारण विकृति आई हुई है आत्मा अपनी प्रकृति (स्वभाव) को भूलकर विकृतिग्रस्त बनी हुई है उसे पुनः प्रकृतिस्थ करने के लिए जिस विचार और आचार की जरूरत है, बस उसे ही 'संस्कृति' कहते हैं।
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सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो संस्कार संपन्न बनने के लिये विशेष प्रयत्न कर सकता है। वह समाज बना कर रह सकता है, वह धर्म और दर्शन पर तात्विक चर्चाएँ कर सकता है, यहाँ तक कि वह अपने आत्मस्वरूप को संस्कारित कर परमात्मा भी बन सकता है। अतः आज संस्कृति के संबंध में जितनी भी चर्चा हुई है, वह सब मनुष्य संस्कृति से ही अधिकांशतः संबंधित हैं।
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१
श्रमण, अंक २, वर्ष १, सन १९४९ पृ. ७
२
क. श्री. के. म. सु. अ. मं. खंड ६ पृ. १४४
३
क. श्री. के. म. सु. अभि. मं. खंड ६, पृ. १४४
क. श्री के म.सु. अभि. ग्रं. खंड ६-१४४
पांच तत्त्व का पुतला, माया मय जंजाल । जयन्तसेन अहं रखे, होवत नहीं निहाल ॥
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