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पारमार्थिक वस्तुसत् की जो व्याख्या की है उसी का आश्रय लेकर उत्तर दिया है कि संबंध भी अर्थक्रियाकारी है अतएव पारमार्थिक वस्तुसत् है। और उसका प्रतिभास तर्क करता है अतएव वह अर्थप्रतिभासित है
सम्बन्धो वस्तु सन्नर्थक्रियाकारित्वयोगतः। स्वेष्टार्थतत्त्ववत्तत्र चिन्ता स्यादर्थभासिनी ॥८५ ॥
तत्त्वार्थश्लो. १.१३ संबंध कौनसी अर्थ क्रिया करता है? उसके उत्तर में कहा है कि संबंध ज्ञान जो होता है वही संबंध की अर्थ क्रिया है
येयं संबन्धितार्थानां संबन्धवशवर्तिनी। सैवष्टार्थक्रिया तज्ञैः संबन्धस्य स्वधीरपि ॥८६॥
तत्वार्थश्लो. १.१३ सति संबन्धोऽर्थानां सबन्धिता भवति नासतीति तदन्वय व्यतिरेकानुविधायिनी या प्रतीता सैवार्थक्रिया तस्य तद्विद्भिरभिमता यथा नीलान्वयव्यतिकानुविधायिनी क्वचिन्नीलता नीलस्यार्थक्रिया तस्यास्तत्साध्यत्वात् । संबन्ध ज्ञानं च संबन्धस्यार्थक्रिया नीलस्य नीलरानवत् । तदुक्तं-मत्या तावदियमर्थक्रिया यदुत स्वविषय विज्ञानोत्पाद नं नामेति ।
तत्त्वार्थश्लो. पृ. १८४-५ तर्क का विषय जो संबंध या प्रतिबन्ध है वही व्याप्ति है, अविनाभाव है—या यों कहें कि अन्यथानुप्त्यात्ति
कालत्रयीवर्तिनो: साध्यसाधनयोर्गम्यगमकयो: सम्बन्धोऽविनाभावो व्याप्तिरित्यर्थः ।
रत्नाकरावतारिका ३.७ हेतु के क्षसत्त्वादि तीन रूप और पांच रूप क्रमश: बौद्ध और नैयायिकों ने माने किन्तु जैनों ने कहा कि अन्यथानुपपन्तिरूप एक ही लक्षण हेतु का हो सकता है अतएव अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव ही व्याप्ति है। जैनों के इस मन्तव्य का मूलाधार धर्मकीर्ति का यह मत है किन्तु संशोधन के साथ
कार्यकारण भावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकान् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान् न दर्शनात् ॥३३॥
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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