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मुनि श्री कल्याण विजयजी गणि
जैन श्रमणसंघ की शासनपद्धति
यद्यपि प्रस्तुत लेख में हमें श्रमणसंघ की शासन-पद्धति का ही मुख्यतया वर्णन करना है, तथापि इसके प्रारम्भ में 'जिनशासनपद्धति' का निर्देश करना भी अनिवार्य है, क्योंकि हमारी श्रमण-शासन-पद्धति भी इसी जिन-शासन-पद्धति का विस्तृत रूप है. जैन सूत्रों में भगवान् महावीर को 'धर्मचक्रवर्ती' कहा है, और वास्तव में वे धर्मचक्रवर्ती ही थे. धार्मिक राज्य की व्यवस्था करने में वे स्वतंत्र और सार्वभौम सत्ताधारी पुरुष थे. लाखों अनुयायियों पर उनका अखण्ड प्रभुत्व था. अनुयायिगण बड़ी लगन के साथ उनके शासनों का अनुपालन करते थे. उनके शासन भी सांप्रदायिक बाड़े में ढकेलने वाले फतवे नहीं, किन्तु सर्वग्राह्य उपदेशात्मक होते थे. महावीर मनुष्यों के स्वभाव और उनकी परिस्थितियों के पूर्ण ज्ञाता थे, यही कारण है कि उनके उपदेशों में कठिन से कठिन और सुगम से सुगम सभी तरह के नियमों के पालन का आदेश होता था. इनके मत में 'निर्ग्रन्थ साधु और मोक्ष मार्ग में विश्वास मात्र रखने वाला गृहस्थ' दोनों जैन थे. इस विशाल दृष्टि और उदारता का परिणाम यह था कि लाखों मनुष्य अपनी-अपनी श्रद्धा, भक्ति और शक्ति के अनुसार महावीर के धर्ममार्ग में प्रवृत्ति कर रहे थे. धर्मचक्रवर्ती महावीर के धर्मसाम्राज्य की शासन-पद्धति का इतिहास बहुत बड़ा है. अपने हजारों त्यागी और लाखों गृहस्थ शिष्यों की व्यवस्था के लिये महावीर ने जो नियम बनाये थे, वे आज भी जैन शास्त्रों में संगृहीत हैं. एक धर्म-व्यवस्थापक अपने अनुयायियों के लिये कैसी सुन्दर व्यवस्था कर सकता है, इस बात को समझने के लिये महावीरप्रणीत 'संघ-व्यवस्थापद्धति' एक मननीय वस्तु है. इस पद्धति का सविस्तार निरूपण करना हमारे इस लेख का विषय नहीं है. यहां पर तो हम इसका दिग्दर्शनमात्र करा के आगे बढ़ेंगे. महावीर के श्रमणगण-भगवान् महावीर के तमाम साधु नौ विभागों में बाँटे हुए थे. ये विभाग 'गण' अथवा 'श्रमणगण' इस नाम से पहिचाने जाते थे. इन गणों के अध्यक्ष महावीर के प्रथम दीक्षित इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह शिष्य थे जो 'गणधर' कहलाते थे. साधु-साध्वियों की कुल-व्यवस्था इन गणधरों के सुपुर्द थी. महावीर ने अपने जिम्मे धार्मिक उपदेश, अन्य तीथिक तथा अपने शिष्यों की शंकाओं के समाधान और धार्मिक नियम बताना इत्यादि काम रखे थे. शेष सब कार्य प्रायः गणधरों के हवाले रहते थे. पूर्वोक्त नौ विभाग व्यवस्था-पद्धति के अनुसार बने हुए थे. गुण की अपेक्षा से महावीर के साधु सात विभागों में भी विभक्त थे, जो १–केवली, २ मनःपर्यवज्ञानी, ३ अवधिज्ञानी, ४ वैक्रियद्धिक, ५ चर्तुदश पूर्वी, ६ वादी और ७ सामान्य साधु कहलाते थे.
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