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यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि इस वर्गीकरण में भी पूर्वोक्त वर्गीकरण से कोई मौलिक या वस्तुगत पार्थक्य नहीं है। इसमें उपमान प्रमाण को पृथक स्थान न देकर, प्रत्यभिज्ञान में सम्मिलित कर लिया गया है। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क उस वर्गीकरण के अनुसार सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत है।
(ग) नय विधि- किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करने वाला विचार नय कहलाता है। नय दो प्रकार के हैं- १. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायार्थिक नय इसमें से प्रथम नय के तीन तथा द्वितीय के चार अर्थात् कुल मिलाकर सात भेद होते है१. नैगम नय- अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम नय है । १२ जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्प रूप से साधता है वह नैगम नय है। १३ २. संग्रह नय- सामान्य अथवा अभेद को ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रहनय है।
३. व्यवहार नय संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण या भेद करना व्यवहार नय है । ४. ऋजु नय भूत और भावी को छोड़कर वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करने को ऋजु नय कहते हैं।
५. शब्द नय शब्द प्रयोगों में आने वाले दोषों को दूर करके तदनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना शब्द नय है। ६. समभिरूढ़ नय शब्द भेद के अनुसार अर्थभेद की कल्पना करना समभिरूद्ध नय है। सर्वार्थसिद्धि में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है- "नाना अर्थों का समाभिरोहण करने वाला होने से यह समभिरूढ़ नय कहलाता है।
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७. एवंभूत नय- यह नय सूक्ष्मतम शाब्दिक विचार हमारे सामने प्रस्तुत करता है अर्थात् जिस शब्द का जो अर्थ होता है, उसके होने से ही उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूत नय है।
(घ) स्वाध्याय विधि जैनाचार्यों द्वारा विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय - विधि का उपयोग किया जाता था । स्वाध्याय से ही व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियां पूर्ण रूप से विकसित होकर सामने आती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के लिए पाँच तरीके बताए गए है- १. बाचना २. पृच्छना, ३ अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय ५. धर्मोपदेश ।
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१. वाचना- निर्दोष ग्रन्थ तथा उसके अर्थ का उपदेश अथवा दोनों ही उसके पात्र को प्रदान करना वाचना है। १४ इसके भी चार भेद हैं- नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या ।
२. पृच्छना संशय का उच्छेद अर्थात् निराकरण करने के उद्देश्य से प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में प्रश्न करना पृच्छना है । १५
३. अनुप्रेक्षा-विकारों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् उसे पूर्ण रूप से आत्मसात् करते हुए श्रुत ज्ञान का परिशीलन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है।
४. आम्नाय - शुद्धिपूर्वक पाठ को बार-बार दोहराना आम्नाय है । १६
५. धर्मोपदेश- देववन्दना के साथ मंगलपाठ पूर्वक धर्म उपदेश करना धर्मकथा है। १७ इसके भी आक्षेपिणी, विक्षेपिणी आदि भेद हैं।
अनुयोगद्वार - विधि- पं० सुखलाल संघवी के अनुसार अनुयोग का अर्थ होता है यात्रा या विवरण और द्वार अर्थात् प्रश्न । प्रश्न ही वस्तु में प्रवेश करने के अर्थात् विचारक द्वारा उसकी तह तक पहुँचने के द्वार हैं। अर्थात् आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी तत्व के सम्बन्ध में तत्सम्बन्धी अनेक प्रश्नों के द्वारा अपने ज्ञान भण्डार को और समद्ध करता है, बढ़ाता है। इसके लिए वह निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव अल्प- बहुतत्व आदि चौदह प्रश्नों के द्वारा सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है।
उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त "आदि पुराण' में शिक्षा पद्धति के अन्य भेद भी वर्णित हैं- १. पाठ विधि, २ प्रश्नोत्तर विधि ३ शास्त्रार्थ विधि ४. श्रवण विधि ५. पद विधि, ६. उपक्रम विधि, ७ पंचांग विधि इत्यादि ऊपर वर्णित इन शिक्षण विधियों का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है
१. पाठ विधि गुरु या शिक्षक शिष्यों को पाठ विधि - - द्वारा अंक और अक्षर ज्ञान की शिक्षा देते हैं । इस विधि का प्रारंभ आदि तीर्थंकर ऋषभ देव से प्रारंभ होता है। इसी विधि के द्वारा उन्होंने अपनी कन्याओं ब्राह्मी और सुन्दरी को शिक्षा दी थी। इस पद्धति में गुरु द्वारा लिखे गये या दिये गये पाठ को शिष्य बारबार लिखकर कंठस्थ करता है । सामान्यतः इस विधि का प्रयोग जैन पुराणों के समस्त पात्रों के अध्यापन में किया गया है। इस विधि में मूलतः तीन शिक्षा तत्त्व परिगणित हैं- १. उच्चारण की स्पष्टता, २. लेखन कला का अभ्यास ३ तर्कात्मक संख्या प्रणाली विधि
२. प्रश्नोत्तर विधि प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग जैन वाङ्मय में कई जगह किया गया है। जैसा कि प्रश्नोत्तर विधि
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