Book Title: Jain Shiksha Paddhati Author(s): Sharad Sinh Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 1
________________ डा० शारदा सिंह जनरल फेलो (आई० सी० पी०आर०) विद्या मनुष्य को विनयशील बनाती है। विनय से वह योग्य बनता है, योग्यता से धन अर्जित होता है व धर्म की प्राप्ति होती है और इसी विद्या, बुद्धि और विवेक के आधार पर मनुष्य संसार के अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एक विलक्षण प्राणी माना जाता है। शिक्षा ही उसके बुद्धि और विवेक का विकास करती है। भारतीय संस्कृति में तीन प्रकार की परम्पराएं देखने को मिलती हैं- ब्राह्मण, जैन और बौद्ध । यहाँ यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का एकाग्र रूप से अध्ययन करने की दृष्टि से जैन शिक्षा पद्धति का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। भारत में श्रमण और ब्राह्मण शिक्षापद्धतियों का समानान्तर विकास हुआ है। श्रमण परम्परा के अन्तर्गत ही जैन और बाद में बौद्ध शिक्षा-पद्धति विकसित हुई । (२) अधिगम विधि अधिगम का अर्थ है पदार्थ का ज्ञान दूसरों के उपदेशपूर्वक पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह जैन शिक्षा पद्धति अधिगमज कहलाता है। इस विधि के द्वारा प्रतिभावान तथा अल्प प्रतिभा युक्त सभी प्रकार के व्यक्ति तत्वज्ञान प्राप्त करते हैं। यही तत्वज्ञान सम्यक् दर्शन का कारण बनता है । शिक्षण पद्धति का प्रयोग जैन जगत् में तत्वज्ञान के लिए किया गया है । तत्वज्ञान का विवेचन जहाँ जिस रूप में किया गया है, वहाँ उसी के अनुरूप शिक्षण पद्धति का प्रयोग किया गया है। कठिन और सरल विवेचन के लिए अलग-अलग विधियों का विवरण मिलता है। इसी प्रकार संक्षिप्त और विस्तृत विवेचन के लिए भी भिन्न-भिन्न विधियों का आश्रय लिया गया है। Jain Education International शिक्षा का सम्पूर्ण विषय सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है। इन्हीं तीनों के सम्मिलित रूप को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग कहा गया है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को सम्यक् - ज्ञान वस्तु के वास्तविक स्वरूप को समझकर दृढ़ निष्ठापूर्वक आत्मसात करना सम्यक् - दर्शन तथा व्यावहारिक रूप से उसे जीवन में उतारना सम्यक् चारित्र है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में इन्हें प्राप्त करने की दो विधियाँ बतलायी है(१) निसर्ग - विधि (२) अधिगम - विधि | (१) निसर्ग विधि निसर्ग का अर्थ है -स्वभाव, प्रज्ञावान व्यक्ति को किसी गुरु अथवा शिक्षक द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की आवश्कता नहीं रहती। जीवन के विकास क्रम में वह स्वतः ही ज्ञान के विभिन्न विषयों को सीखता रहता है तथा तत्वों का सम्यक् बोध स्वत: प्राप्त करता रहता है। उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला बन जाती है। सम्यक् ज्ञान और सम्यक् बोध की उपलब्धियों को वे जीवन की प्रयोगशाला में उतार कर सम्यक् चारित्र को उपलब्ध करते हैं, यही निसर्ग विधि है । अधिगम और निसर्ग विधि में अन्तर है तो इतना कि निसर्ग विधि में प्रज्ञा का स्फुरण स्वत: होता है तथा अधिगमविधि में गुरु का होना अनिवार्य है। अर्थात् गुरु के उपदेश से जीव और जगत रूपी तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना अधिगम - विधि है । इसके निम्नांकित भेद हैं- (क) निक्षेप-विधि (ख) प्रमाण-विधि (ग) नय - विधि (घ) स्वाध्याय - विधि (ङ) अनुयोगद्वार विधि | (क) निक्षेप विधि लोक व्यवहार में अथवा शास्त्र में जितने शब्द होते हैं. वे वहाँ किस अर्थ में प्रयोग किये गये हैइसका ज्ञान होना निक्षेप विधि है। एक ही शब्द के विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं। इन अर्थों का ज्ञान निक्षेप-विधि द्वारा किया जाता है। अर्थात् अनिश्चितता की स्थिति से निकलकर निश्चितता में पहुंचना निक्षेप विधि है। जैन मान्यतानुसार प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ निकलते हैं। वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ सामान्य के चार विभाग हैं। ये विभाग ही निक्षेप या न्यास कहलाते हैं। निक्षेप-विधि के चार विभाग निम्नलिखित है द्रव्य (४) भाव | (१) नाम (२) स्थापना (३) ० अष्टदशी / 1810 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.orgPage Navigation
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