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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान २७५
हो गये हैं । इसलिये यह विषय परम्परा के बदले सुविधा का माना जाने लगा है। फिर भी, स्वस्थ, सुखी एवं अहिंसक जीवन की दृष्टि से इसकी उपयोगिता को कम नहीं किया जा सकता इसीलिये इसे जैनत्व के विह्न के रूप में आज भी प्रतिष्ठा प्राप्त है।
आहार काल और अन्तराल की जैन मान्यता विज्ञान सचित है।
आहार का प्रमाण
सामान्य जन के आहार का प्रमाण कितना हो, इसका उल्लेख पात्रों में नहीं पाया जाता। परन्तु भगवती आराधना, मूलाचार, भगवती सूत्र, अनागार धर्मामृत आदि ग्रन्थों में साधुओं के आहार का प्रमाण बताते हुए कहा है कि पुरुष का अधिकतम आहार प्रमाण ३२ ग्रास प्रमाण एवं महिलाओं का २८ वास प्रमाण होता है। ओपपातिक सूत्र 34 में आहार के भार का 'ग्रास' यूनिट एक सामान्य मुर्गी के अण्डे के बराबर माना गया है जब कि बसुनन्दि ने मूलाचार वृत्ति ३६ में इसे एक हजार चावलों के बराबर माना है । अण्डे के भार को मानक मानना आगम युग में इसके प्रचलन का निरूपक है । बाद में सम्भवत: अहिंसक दृष्टि से यह निषिद्ध हो गया और तण्डुल को मार का यूनिट माना जाने लगा। यह तण्डुल भी कौन-सा है. यह स्पष्ट नहीं है पर तण्डुल शब्द से कच्चा चावल ग्रहण करना उपयुक्त होगा । सामान्यतः एक अंडे का भार ५०-६० ग्राम माना जाता है, फलतः मनुष्य के आहार का अधिकतम दैनिक प्रमाण ३२५० १६०० ग्राम तथा महिलाओं के आहार प्रमाण २८४५० - १४०० ग्राम आता है। बीसवों सदी के लोगों के लिये यह सूचना अचरज में डाल सकती है, पर पद यात्रियों के युग में यह सामान्य हो मानी जानी चाहिये। इसके विपर्यात में एक हजार चावल के यूनिट का भार १२-१५ ग्राम होता है, इस आधार पर पुरुष का आहार प्रमाण ३२x१५ = ४८० ग्राम और महिला का आहार प्रमाण २०१५ - ४२० ग्राम आता है। यह कुछ अव्यावहारिक प्रतीत होता है। यह 'यूनिट' संशोधनीय है। प्रमाण के विषय में 'प्रास' के यूनिट को छोड़कर शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं पाया जाता ।
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आहार का यह प्रभाव प्रमाणोपेत, परिमित व प्रशस्त कहा गया है। एक मक्त साधु के लिये यह एक बार के आहार का प्रमाण है, सामान्य जनों के लिये यह दो वार के भोजन का प्रमाण है। चतुःसमयी आहार-युग में यह दैनिक आहार प्रमाण होगा। संतुलित आहार की धारणा के अनुसार, एक सामान्य प्रौढ पुरुष और महिला का आहार प्रमाण १२५०-५०० ग्राम के बीच परिवर्ती होता है। आगमिक काल के चतुरंगी आहार में संभवतः जल भी सम्मिलित होता था।
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भाग
में, उदर के चार वायु संचार के लिये इससे स्वास्थ्य ठीक रहेगा नहीं बताया, पर उसके विभाग अम्ल पदार्थों को खाना चाहिये,
शास्त्रों में आहार प्रकरण के अन्तर्गत आहार के विभाग भी बताये गये हैं। मूलाचार भाग करने का संकेत है । उसके दो भागों में आहार ले, तीसरे भाग में जल तथा चौथा रखे। इसका अर्थ यह हुआ कि भोजन का एक-तिहाई हिस्सा द्रवाहार होना चाहिये। और आवश्यक कियायें सरलता से हो सकेंगी। उपादित्य ने आहार-परिमाण तो अवश्य कहे हैं। सर्वप्रथम चिकने मधुर पदार्थ खाना चाहिये, मध्य में नमकीन एवं उसके बाद सभी रसों के आहार करना चाहिये, सबसे अन्त में द्रवप्राय आहार लेना चाहिये । सामान्य भोजन में दाल, चावल, घी की बनी चीजें, कांजी, तक्र तथा शीत / उष्ण जल होना चाहिये । भोजनान्त में जल अवश्य पीना चाहिये। सामान्यतः यह मत प्रतिफलित होता है कि भूख से आधा खाना चाहिये। यह मत आहार की सुपाभ्यता की दृष्टि से अति उत्तम है। शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि पौष्टिक खाद्य, अधपके खाद्य या सचित्त खाद्य खाने से वातरोग, उदरपीडा एवं मदबुद्धि होते हैं। नेमिचंद्र सूरि ने उदर के छह भाग किये हैं।
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