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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ STD - हा -यांट चार्वाक दर्शन आत्मा को जन्म से मरण पर्यन्त ही मानता है। तथा शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा का भी अभाव (नाश) हो जाता है, इसीलिए यह दर्शन पुनर्जन्म तथा मोक्ष आदि को स्वीकार नहीं करता । इस सम्बन्ध में उसकी मान्यता है कि-'यदि आत्मा आदि का अस्तित्व स्वतन्त्र रूप से सिद्ध होता तो उसके गुणों आदि पर भी विचार किया जाता, किन्तु जब परलोक में गमन करने वाले आत्म द्रव्य का अभाव है और प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होने के कारण परलोक का भी अभाव है । तब मुक्ति किसे होगी ?1 कवि ने 'तदहर्जस्तनेहातो,' 'रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः' कहकर जीव को सनातन (शाश्वत) मानते हुए चार्वाक मत के इस सिद्धान्त का खंडन किया है। क्योंकि उसी दिन उत्पन्न हुआ बच्चा पूर्वजन्म सम्बन्धी संस्कार से माता के स्तनों के दूध को पीने में प्रवृत्ति करता है (तदहर्जस्तनेहातो) । इसलिए इस युक्ति से आत्मा तथा उसका पूर्वजन्म सिद्ध होता है ? इसी प्रकार 'रक्षोदृष्टे:' अर्थात् कोई मर कर राक्षस होता हुआ देखा जाता है तथा 'भवस्मृतेः'--किसी को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होता है । अतः इन युक्तियों से चार्वाक दर्शन का उक्त मत खण्डित होता है। चार्वाक दर्शन के केवल 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण' की भी कवि ने समीक्षा करते हा आप केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हो तो आपके माता-पिता के विवाह आदि की सत्ता कैसे सिद्ध होगी? अथवा तुम्हारे वंश में उत्पन्न हुए अदृश्य-पूर्वजों की सत्ता कैसे सिद्ध होगी ? उनकी सिद्धि के लिए यदि आगम-प्रमाण मानते हो तो 'मात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' का आपका यह सिद्धान्त खण्डित होता है। चार्वाक दर्शन जगत में जीव की उत्पत्ति भूतचतुष्टय से मानता है। किन्तु निश्चय से जीव भूतात्मक (पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु रूप-जड़) नहीं है । क्योंकि इसमें अचेतन (जड़) पृथ्वी आदि भूतों की अपेक्षा विरुद्ध गुण (चैतन्य-बुद्धि) का संसर्ग पाया जाता है । आत्मा के नष्ट हो जाने पर भूत भी नष्ट हो जायेंगे परन्तु (आत्मा) सत् का नाश नहीं होता । यदि आप विरुद्ध गुण (चेतन गुण) के संसर्ग होने पर भी जीव को भूतात्मक (जड़) मानोगे तो आपके पृथ्वी आदि चारों तत्वों की सिद्धि नहीं होगी। बौद्ध-दर्शन-जगत को क्षणविध्वंसी मानने वाले बौद्ध-अनुयायी आत्म तत्व की पृथक सत्ता स्वीकार नहीं करते । वह संसार की प्रत्येक वस्तु को अनित्य व क्षणिक मानता है । उसके अनुसार जगत में शाश्वत कुछ भी नहीं है, सब कुछ नश्वर है। इस कथन को पोष्ट हेतु बौद्ध मतानुयाया कहते हैं कि जो मरे हुए प्राणी का जन्म देखते हैं और जो ऐसे धर्म को देखते हैं जिसका फल प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है तथा जो शरीर से पृथक आत्मा को देखते हैं वे मूढमति वाले हैं। अर्थात् पुनर्जन्म तथा धर्म एवं शरीर से भिन्न आत्मा की मान्यता मात्र भ्रामक है । यदि बुद्ध की यह मान्यता है कि शरीर के नष्ट होते ही आत्म द्रव्य भी नष्ट हो जाता है किन्तु जिस प्रकार कस्तूरी के समाप्त हो जाने पर भी उसकी गन्ध बनी रहती है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का अस्तित्व रहता है। . बौद्ध दर्शन में जगत को शून्य माना गया है, अर्थात् मात्र शून्य का ही अस्तित्व है। इस सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि : जब आपने ऐसी प्रतिज्ञा की है कि 'मैं प्रमाण से शून्य तत्व को सिद्ध कर सकता हूँ' तब आपका उक्त सर्व शून्यवाद सिद्धान्त कहाँ रहता है। चूंकि 'मैं' प्रतिज्ञापूर्वक 1. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं (दीपिका) उत्तरार्द्ध पृ० 185 2. वही, 6/32/190 एवं 5/113/163 3. वही, उत्तरार्द्ध, पृ० 274 4. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं (दीपिका) 5/119/164 5. वही, 5/78/156 6. वही, 5/110/162 7. वही, 6/54/191 १८६ / चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य -us.... Ans. S AaiN
SR No.210862
Book TitleJain Vidwan ke Sandarbha me Somadevasuri krut Yashstilaka Champoo me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size863 KB
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