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________________ .................. ................. HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHI L ...TOTATI O DOOT (साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ शून्य तत्व को सिद्ध करेगा इसलिए 'मैं' की सत्ता स्वयं सिद्ध ही है। इसलिए बौद्ध दर्शन की स्वयं की उक्ति से ही उनका शून्यत्ववाद खण्डित हो जाता है । जव यह कहा जाता है कि 'वही मैं हूँ, वही (पूर्व दृष्ट) पात्र हैं तथा वही दाताओं के गृह हैं' इस प्रकार के वाक्य से भी उनका शून्यवाद समाप्त हो जाता है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद का समर्थक है । एक ओर तो वह वस्तु को क्षणिक मानता है, और दूसरी ओर कहता है कि 'जो मैं बाल्यावस्था में था, वही मैं युवावस्था में हूँ' इस प्रकार के एकत्व मान का यह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। ___ इसी प्रकार मुक्ति के विषय में कवि कहता है कि जब बौद्धदर्शन वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील मानता है तब बन्ध व मोक्ष का सर्वथा अभाव हो जायेगा। क्योंकि जिस प्रथम क्षण में आत्मा का कर्म बन्ध होता है, दूसरे ही क्षण उस आत्मा का विनाश हो जायेगा। ऐसी स्थिति में मुक्ति किसकी होगी ? इस दृष्टि से उनका यह मानना कि सर्व क्षणिकं-क्षणिके, दुख-दुखं, स्वलक्षण-स्वलक्षणं एवं शून्य-शून्यं रूप चतुष्टय भावना से मुक्ति होती है-युक्तियुक्त नहीं है। सांख्य दर्शन-सांख्य दर्शन में आत्मा को पुरुष कहा गया है तथा जगत को प्रकृति शब्द से अभिहित किया गया है। उसके अनुसार यह आत्मा अकर्ता, निर्गुण, शुद्ध, नित्य, सर्वभूत, निष्क्रिय, अमूर्तिक, चेतन तथा भोक्ता है। इसी तरह प्रकृति को जड़, अचेतन, एक, सक्रिय तथा त्रिगुणातीत कहा गया है। यहाँ कवि आपत्ति करता है कि यदि बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख, प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि प्रकृति के धर्म हैं तो आत्म तत्व की मान्यता का क्या प्रयोजन ? चूंकि आत्मा चेतन है, इसलिए बन्ध, मोक्ष, सुख आदि आत्मा के धर्म होने चाहिए, न कि जड़ रूप प्रकृति के। इसी प्रकार यदि प्रकृति को सक्रिय एवं पुरुष को निष्क्रिय मानते हो तो वह भोक्ता कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता और जब आप आत्मा (पुरुष) को शुद्ध व निर्गुण मानते हो तो वह शरीर के साथ संयोग (सम्बन्ध) रखने वाला कैसे हो सकता है और जो (प्रकृति) जड़ रूप है वह सक्रिय एवं जो (पुरुष) चेतन है वह निष्क्रिय कैसे हो सकता है।' मुक्ति के विषय में सांख्य दर्शन की मान्यता है कि : समस्त इन्द्रिय-वृत्तियों को शान्त करने वाला प्रकृति, बुद्धि, मन, व अहंकार का विरह (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाने से पुरुष (आत्मा) का अपने चैतन्य रूप में स्थित होना ही मुक्ति है । इस मान्यता का खण्डन करते हुए कवि कहता है कि जब प्रकृति तथा पुरुष नित्य व व्यापक (समस्त मूर्तिमान पदार्थों के साथ संयोग रखने वाले) हैं तब उन दोनों का विरह (सम्बन्धविच्छेद) कै हो सकता है। क्योंकि नित्य व व्यापक पदार्थों का किसी काल व किसी देश में विरह नहीं हो सकता। इसी तरह यदि आप पुरुष को नित्य10 मानते हो तो उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, फलस्वरूप कर्म-बढ़ आत्मा सदैव कर्म-बद्ध ही रहेगा। तथा आत्मा का कर्मों से बन्ध ही नहीं होगा। चूंकि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से नित्य व पर्याय की दृष्टि से अनित्य होती है इसलिए पुरुष को मात्र नित्य मानता युक्ति-संगत नहीं है। ति 1. वही, 8/126/409 2. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं (दीपिका) 6/106/205 3. वही उत्तरार्द्ध पु० 184 4. वही 5/62/152 5. वही 5/85/157 6. वही 5/86,87/158 7. वही 8/121/407 8. वही (उत्तरार्द्ध) पृ० 187 9. वही 6/28/189 10. वही 6/106/205 सोमदेवसूरिकत-यशस्तिलकचम्पू में प्रतिपादित दार्शनिक मतों की समीक्षा : जिनेन्द्रकुमार जैन | १८७
SR No.210862
Book TitleJain Vidwan ke Sandarbha me Somadevasuri krut Yashstilaka Champoo me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size863 KB
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