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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) HHHHHHHHHHiiiiiiiiमम्म्म्म्म्म्म् ‘पशु बलि से देवता संतुष्ट होते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ऐसा वेदों का कथन है, इसलिए कवि वेदों को मूर्ख एवं स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा रचा हुआ मानता है। वह कहता है कि इन्द्रियलम्पट एवं भोगों की चित्तवृत्ति के अनुकूल चलने चाले पुरुषों ने अपने विषयों के पोषणार्थ यह वेद रचा है। यदि अश्वमेध यज्ञ आदि में पशवध करने वालों को स्वर्ग प्राप्त होता है तो वह स्वर्ग कसाइयों को निश्चित रूप से प्राप्त होना चाहिए। इसी तरह यदि यज्ञ में मंत्रोच्चारणपूर्वक होमे गये पशुओं को स्वर्ग प्राप्त होता है ? तो अपने पुत्र आदि कुटुम्ब वर्गों से यज्ञ-विधि क्यों नहीं होती है ?1 इसी प्रकार यशोधर आगे कहता है कि-हे माता, यदि प्राणियों का वध करना ही निश्चय से धर्म है तो शिकार की 'पापधि' नाम से प्रसिद्धि क्यों है और मांस की 'पिधायआनयन' (ढक कर लाने लायक) नाम से प्रसिद्धि किस प्रकार से है ? इसी प्रकार मांस पकाने वाले को 'गृहादबहिर्वास' (घर से बाहर निवास) एवं मांस को 'रावण शाक' क्यों कहा जाता है ? तथा अष्टमी, चतुर्दशी, अमाव एकादशी आदि पर्व दिनों में मांस का त्याग किस प्रकार से किया जाता है ? यशोधर की उक्त बात सुनकर माता चन्द्रमति पौराणिक उद्धरणों द्वारा जीव-बलि का समर्थन करती है। वह कहती है-अपने प्राणों की रक्षार्थ गौतम ऋषि ने बन्दर को, और विश्वामित्र ने कुत्ते को मार डाला था। इसी प्रकार शिवि, दधीच, बलि तथा बाणासुर एवं अन्य पशु-पक्षियों के घात से अपने कर्म की शान्ति की गई है, वैसे ही तुम्हें भी अपने स्वप्न की शान्ति के लिए बलि द्वारा कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इसका उत्तर देते हुए यशोधर कहता है कि-हे माता, जिस प्रकार मेरा वध होने पर आपको महान दुःख होगा उसी प्रकार दूसरे प्राणियों के वध से उनकी माताओं को अपार दुःख होगा। अतः दूसरे जीवों के जीव से अपनी रक्षा होती है तो पूर्व में उत्पन्न हुए राजा लोग क्यों मर गये ? वैदिक दर्शन में पूर्वजों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध-कर्म का विधान किया गया है । अतः श्राद्ध-कर्म की समीक्षा करते हुए यशोधर कहता है कि-'ब्राह्मणादि का तर्पण पूर्वजनों को तृप्त करने वाला है। यह उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जब पूर्वज पुण्य कर्म करके मनुष्य-जन्मों में अथवा स्वर्गलोकों में प्राप्त हो चुके हैं, तब उन्हें उन श्राद्ध-पिण्डों की कोई भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। चार्वाक दर्शन-आत्मा को मात्र जन्म से मरण पर्यन्त मानने वाले जड़वादी या भौतिकवादी (चार्वाक) दर्शन सुख को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है । इसीलिए यह दर्शन निम्न उक्ति को विशेष महत्व देता है :यावज्जीवेत् सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । (यशस्तिलक वम्पू महाकाव्य, ५/७६) (अर्थात जब तक जिओ, तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो। क्योंकि (संसार में) कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। भस्म हुई शान्त देह का पुनरागमन कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।) 1. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं, (दीपिका, सुन्दरलाल शास्त्री) 4/175, 176/75 2. वही चतुर्थ आश्वास, पृ० 55 ____3. वही चतुर्थ अःश्वास पृ० 72 4. वही 4/71, 72/74 5. वही 4/97/61 सोमदेव सूरिकृत-यशस्तिलकचम्पू में प्रतिपादित दार्शनिक मतों की समीक्षा : जिनेन्द्रकुमार जैन | १८५ SALERS Naimiternatia
SR No.210862
Book TitleJain Vidwan ke Sandarbha me Somadevasuri krut Yashstilaka Champoo me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size863 KB
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