________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जैन विचारधारा में शिक्षा
-चांदमल करनावट
( उदयपुर )
शिक्षा संस्कार-निर्माण की एक प्रक्रिया है। जीवन को संस्कारित या सुसंस्कृत बनाने में शिक्षा की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है । सत् शिक्षा ने व्यक्तियों के जीवन में नये प्राण फूंके हैं और राष्ट्रों का कायाकल्प भी किया है । यही कारण है कि समाज को प्रगति पथ पर अग्रसर करत तथा उसके नवनिर्माण में शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा की अहम भूमिका को एकमत से स्वीकार किया है ।
भारत को विश्वगुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसका प्रमुख कारण यहाँ को समृद्ध शिक्षा व्यवस्था रही है । यहाँ के शैक्षिक वातावरण में भौतिकता के स्वर ही नहीं गूंजे परन्तु आध्यात्मिकता के प्रेरक पवित्र और मधुर स्वर प्रधान रहे हैं । यहाँ जड़तत्त्वों के विकास और तत्सम्बन्धी प्रगति को गौण मानकर चेतना शक्तियों के विकास का लक्ष्य ही मुख्य रहा है।
धर्मप्रधान देश भारत के सभी धर्मों में शिक्षा को बुनियादी स्थान और महत्त्व प्रदान किया गया है। सभी धर्मों में शिक्षा की अपनी-अपनी अवधारणा है, शिक्षा-व्यवस्था है और शिक्षा की विधियाँ हैं । इस लघुलेख में जैन विचारधारा में शिक्षा की अवधारणा और उसकी कुछ विशेषताओं पर लिखा जा रहा है।
शिक्षा की अवधारणा (१) शिक्षा, धर्म का ही एक अंग है
धर्म क्रियाकाण्ड तक ही सीमित नहीं है। वह जीवन की समस्त प्रवृत्तियों एवं समस्त व्यवहारों से जुड़ा हुआ है । उनसे विलग धर्म का स्वरूप ही नहीं है। जीवन के इन व्यवहारों और प्रवृत्तियों में शिक्षा भी एक महत्त्वपूर्ण व्यवहार है, एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। धर्म जीवन को शांतिपूर्ण एवं आनन्दमय बनाने का साधन है । शिक्षा भी इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु कार्य करती है । अतः उसे धर्म का ही अंश मानकर जैन तीर्थंकरों ने साधु-साध्वियों के आचार के साथ स्वाध्याय को शिक्षा के रूप में जोड़ दिया है। इसके अनुसार दिन रात के ८ पहरों में से ४ प्रहर स्वाध्याय करने का विधान है ।।
२३२ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक-सम्पदा
www.jainelibrar