________________
धानिक प्राआवाद
३३८
धर्म और दर्शन
कर्मों से है जिनके कारण यह आत्मा संसार में बारम्बार जन्म-ग्रहण करता रहता है। इन कर्मों __का सम्बन्ध आत्मा से कैसे होता है, इसके लिए आस्रव और बन्ध शब्द आये हैं तथा उनसे आत्मा
कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्त्वों को रखा गया है। आत्मा का कर्मों से सम्बन्ध जब पूर्णतः दूर हो जाता है तब उसका विशुद्ध और मूल रूप सामने आता है। इसी को मोक्ष कहा गया है।
इस प्रकार रहस्यभावना का सीधा सम्बन्ध जैन-संस्कृति में उक्त सप्त तत्त्वों पर निर्भर करता है । इन सप्त तत्त्वों की समुचित विवेचना ही जैन ग्रन्थों की मूल भावना है । आचारशास्त्र, विचारशास्त्र इन्हीं तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं, अध्यात्मवादी ऋषि-महर्षियों
और विद्वानों-आचार्यों ने रहस्यभावना की साधना में स्वानुभूति के साथ विपुल साहित्य सृजन किया है। रहस्यभावना का साधक
'एकं हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' के अनुसार साधक एक ही परम सत्य को विविध प्रकार से अनुभव में लाते हैं और उसे अभिव्यक्त करते हैं। उनकी रहस्यानुभूतियों का धरातल पवित्र आत्मसाधना से मण्डित रहता है। यही साधक तत्त्वदर्शी और कवि बनकर साहित्य-जगत में उतरता है। उसका काव्य भावसौन्दर्य से निखरकर स्वाभाविक भाषा में निसृत होता है। फिर भी पूर्ण अभिव्यक्ति में असमर्थ होकर वह प्रतीकात्मक ढंग से भी अपनी रहस्यभावना को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। उसकी अभिव्यक्ति के साधन भाव और भाषा में श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, उपालम्भ जैसे भाव समाहित होते हैं। साधक की दृष्टि सत्संगति और गुरुमहिमा की ओर जाकर आत्मसाधना के माध्यम से परमात्मपद की प्राप्ति की ओर मुड़ जाती है । अध्यात्मवाद बनाम रहस्यवाद : एक विश्लेषण
उक्त सभी तत्त्वों पर आध्यात्मिक साधकों ने साहित्यिक रूप में पर्याप्त विवेचन किया है। इन अध्यात्मवादी साधकों की एक लम्बी परम्परा है । जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द, मुनि कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दु मुनि, मुनि रामसिंह, लक्ष्मीचन्द, आनन्दतिलक, महयंरिण, छीहल, बनारसीदास, भगवतीदास, रूपचन्द्र, ब्रह्मदीप, आनन्दघन, यशोविजय, भैया भगवतीदास, पांडे हेमराज, द्यानतराय, भूधरदास, दौलतराम, बुधजन, भागचन्द आदि का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूपों पर अनुभूतिमिश्रित सम्यक् विवेचन प्रस्तुत किया है।
इन साधकों के अध्यात्मवादी साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर पाठक को यह अनुभूति हुए बिना नहीं रहेगी कि वे परमात्मा के साक्षात्कार के लिए कितने आतुर रहे हैं। इस सन्दर्भ से उन्होंने अपने आराध्य तीर्थंकरों और परमेष्ठियों की स्तुतियां की हैं, भक्ति के प्रवाह में आकर अपना दास्यभाव प्रदर्शित किया है तथा नामस्मरण, सत्गुरुदर्शन आदि की महिमा का व्याख्यान किया है। इन सभी प्रसंगों में साधकों की गहन अनुभूति का पता चलता है। इसे हम समासतः इस प्रकार देख सकते हैं---
कुन्दकुन्द का साहित्य, विशेषतः पाहुड़ साहित्य रहस्यवाद की परम्परा का संस्थापक कहा जा सकता है। योगीन्दु, रामसिंह, बनारसीदास, द्यानतराय आदि कवियों के लिए वह उपजीवक रहा है। सकल-निकल परमात्मा का निरूपण, साकार-निराकार की भक्ति तथा सगुण-निर्गुण ब्रह्म की उपासना जैन साधकों ने अपने ढंग से की है। फागु, वेलि, रासा, स्तोत्र, चौपाई, बारहमासा, चरित्र, आयण आदि ऐसे ही माध्यम हैं जहां उनकी अनुभूति का स्वर गहरा हुआ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org