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संसार का स्वरूप,
संसार से मुक्त होने का उपाय ( भेदविज्ञान) और मुक्तावस्था की परिकल्पना निर्वाण ।
जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद ३३७
रहस्यभावना का साध्य
रहस्यभावना का प्रमुख साध्य परमात्मपद की प्राप्ति करना है, जिसके मूल साधन हैं स्वानुभूति और भेदविज्ञान किसी विषयवस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधक के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है। साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत साधक को यथावत् दिखाई देने लगता है। उसके मन में रहस्य की यह गुथि जब समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ अशाश्वत है, क्षणभंगुर है, और यह सत्, चित् रूप आत्मा उस पदार्थ से पृथक् है, ये पदार्थ हमारे नहीं हो सकते और न हम कभी इन पदार्थों के हो सकते हैं तब उसके मन में एक अपूर्व आनन्दानुभूति होती है। इसे हम जैन शास्त्रीय परिभाषा में भेदविज्ञान कह सकते हैं। साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य कहा जा सकता है। विश्व सत्य का समुचित प्रकाशन इसी अवस्था में हो पाता है। भेदविज्ञान की प्रतीति कालान्तर में हक़तर होती चली जाती है और आत्मा भी उसी रूप में परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में पहुँचकर साधक अनिर्वचनीय अनुभूति का आस्वादन करता है। आत्मा की यह अवस्था शाश्वत और चिरन्तन सुखद होती है । रहस्यवादी का यही साध्य है । शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम निर्वाण कह सकते हैं।
साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है । सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा रहस्य नहीं रह जाता । साधक के लिए वह भले ही रहस्य बना रहे । इसलिए तीर्थंकर ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण आदि की परम स्थिति साध्य है। इसे हम ज्ञेय अथवा प्रमेय भी कह सकते हैं ।
इस साध्य, गेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है। जिज्ञासा ही प्रमेष अथवा रहस्य तत्त्व के अन्तस्तल तक पहुँचाने का प्रयत्न करती है । तदर्थ साध्य के सन्दर्भ में साधक के मन में प्रश्न, प्रतिप्रश्न उठते रहते हैं, "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" इसी का सूचक है । “नेति नेति” के माध्यम से साधक की रहस्यभावना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप चला जाता है। फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है-यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । इस अनुभूतिपरक जिज्ञासा की अभिव्यक्ति के रूप में सृजित होने वाले काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनैः-शनैः साध्य दशा तक बढ़ता चला जाता है । अतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभावना की गहनता और सघनता यथार्थ में काव्य की विधेयावस्था का केन्द्रबिन्दु समझना चाहिए।
रहस्यभावना का साधन
परम गुह्य तत्त्व रूप रहस्यभावना के वास्तविक तथ्य तक पहुँचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके। ऐसे साधनों में आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन-मनन करना विशेष महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्म में तो आत्मतत्त्व इसी केन्द्र बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसी को कुछ विस्तार से समझने के लिए वहाँ समूचे तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया गया है— जीव और अजीव जीव का अर्थ है आत्मा और अजीव का विशेषण सम्बन्ध उन पौद्गलिक
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आचार्य प्रव श्री आनन्द
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आचार्य प्रवर अभिनंदन
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