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पंचम खण्ड | २४६
हाँ, तो प्रकृत है-धाराविशेष के अनुरूप "योग" का-ऊर्ध्वगामी संस्कार अनुरूप "मार्ग" के स्वरूप का निर्धारण । मुनियों की धारणा है कि जैनधर्म की साधना-पद्धति का नाम मुक्तिमार्ग है-अष्टांग-योग सांख्यों को साधना-पद्धति का नामान्तर है । जैसे धारा में मूक्तिमार्ग के तीन अंग हैं-जिनकी "व्यस्त" नहीं "समस्त" रूप में हेतूता है
अर्चनार्चन
सम्यक्-दर्शन
सम्यक-ज्ञान
और सम्यक-चारित्र पातञ्जलयोग की तुलना में इस "रत्नत्रयी" को जैनयोग कहा जाता है। बौद्धों के यहां भी रत्नत्रय हैं-शील, समाधि और प्रज्ञा। शील से समाधि और समाधि से प्रज्ञा । प्रज्ञा अर्थात् पारमिता प्रज्ञा-नैरात्म्यबोद्ध-बुद्धि जितनी भी संभावित कोटियों में "स्व-भाव" निरूपण कर सकती है-उससे मुक्तरूप में "तथता" का साक्षात्कार । पातञ्जलधारा में भी प्रज्ञा का अतिक्रमण असंप्रज्ञात में होता है-तब "द्रष्टा का स्वरूपावस्थान" सम्पन्न होता है। जैन-धारा अपने ढंग से कैवल्य लाभ करती है-तदर्थ जिस रत्नत्रयी का सहारा लेती है-वही है-जैन-योग। वैसे हम भीतर धंसते जायें तो इन तीनों-ब्राह्मण, बौद्ध एवम् जैन धाराओं में अनेकविध साम्य दृष्टिगोचर होंगे। उदाहरणार्थ विश्वव्यापी अध्यात्मसाधना या योग (उपाय) सबसे पहले "चित्तस्थैर्य" अजित करती है-यही 'बल-लाभ' है। इस 'बल-लाभ' के बिना अशक्त साधक इस दिशा में एक कदम नहीं चल सकता। चित्तस्थैर्य का उपाय “शास्त्र निर्दिष्ट" है-जो "प्राचार्य दीक्षाजन्य' है। अतः पौरुषेय-बोध-मलिन बोध से दुर्दश्य इस मार्ग में सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् विश्वास ही सहारा है । "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्"- सम्यक् श्रद्धावान् ही सम्यक् ज्ञान लाभ करता है। तभी भीतर से चारित्र की सहज सिद्ध सुगंध चारों तरफ फूट कर फैलती है। यह सही है कि प्रत्येक धारा अपने स्वभाव के अनुसार अपने भीतर से अपना मार्ग निर्धारित करती है। कोई किसी की नकल नहीं करता, फिर उन मार्गों में साम्य मिल जाय-यह बात दूसरी है। वैसे साधकों में धारान्तर की साधनाओं के पारस्परिक प्रभाव को शत-प्रतिशत नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ग्यारहवीं शती में आचार्य रामसेन का "तत्त्वानुशासन" और प्राचार्य शुभचन्द्र का "ज्ञानार्णव" अष्टांगयोग, हठयोग और तंत्रोक्त योग से प्रभावित हया है। प्रागमिक साधना का "धर्मध्यान" इस काल में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार रूपों में वर्गीकृत हो गया। इस वर्गीकरण पर धारान्तर का प्रभाव स्पष्ट है-जो एक स्वतंत्र विश्लेषण का विषय है। बौद्धों की हीनयानी "विपश्यना" जैन-मार्ग में भी "प्रेक्षा या विपश्यना" के रूप में उपलब्ध है।
चित्तस्थैर्य सार्वभौम अध्यात्मसाधना का सामान्य प्रस्थान है-बिन्दु है । इसे वृत्ति की एकतानता या ध्यान कहा जाता है। प्राचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध (आयारो) ध्यान पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। वस्तुतः जैनमार्ग प्रात्मा के साथ कर्म का योग और-प्रयोग निरूपित करते हुए सात पदार्थों की बात करता है-प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, जीव तथा अजीव । जनदर्शन में एक "योग"-उमास्वाति के द्वारा बंधन के पांच कारणों में से एक है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । पालोचना योगमुक्ति का मार्ग है
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