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________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पाठ खण्ड उपदेशकों की भी क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बात की सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा सकती, आज वह हमारे सामने उपस्थित है। बहुतों के तो न रात्रिभोजन का विचार, न अभक्ष्य वस्तुओं का परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण या क्रियाकाण्ड और नवकारसी का पता। आज इनमें कई व्यक्ति तो भांग-गाँजा आदि नशीली चीजों का सेवन करते हैं। बाजारों में वृष्टि आदि का सौदा करते हैं। उपाश्रयों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचार का बोलबाला है। अतएव जगत की दृष्टि में वे बहुत गिर चुके हैं। पंच महाव्रतों का तो पता ही नहीं, अणुव्रतधारी श्रावकों से भी इनमें से कई तो गये-बीते हैं। यतिनियों की तो बात ही न पूछिए, उनके पतन की हद हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैन समाज के लिये कलंक का कारण हो रही है। यति समाज की यह दशा आँखों देखकर विवेकी यतियों के हृदय में सामूहिक सुधार की भावना जागृत हुई थी, खरतर गच्छ के बालचन्द्राचार्य आदि के प्रयत्न के फल से सं० 1963 में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई थी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए थे, यथा (1) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा का सुप्रबन्ध (2) बाह्य व्यवहार शुद्धि (3) ज्ञानोपकरण की सुव्यवस्था (हस्तलिखित ग्रन्थों का न बेचना) (4) संगठन (5) यति डायरेक्टरी प्रकाशन आदि / उस कान्फ्रेन्स का दूसरा अधिवेशन हुआ या नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० 1961 में बीकानेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था और उसका दूसरा अधिवेशन भी फलौदी में हुआ था, पर सभी कुछ परिणाम-शून्य ही रहा। अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी की तरह कुछ सत्ता-बल का भी प्रयोग किया जाना चाहिए। एक विद्यालय, ब्रह्मचर्य-आश्रम, केवल यति-शिष्यों की शिक्षा के लिए खोला जाय / यहाँ पर अमुक डिग्री तक प्रत्येक यति शिष्य को पढ़ना लाजिमी किया जाय, उपदेश क के योग्य पढ़ाई की सुव्यवस्था की जाय / उनसे जो विद्यार्थी निकलें उनके खर्च आदि का योग्य प्रबन्ध करके उन्हें स्थान-स्थान पर उपदेशकों के रूप में प्रचार कार्य में नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जैन धर्म की सेवा का सुयोग मिले / श्रावक समाज का उसमें काफी सहयोग होना आवश्यक है। 1. श्वेताम्बर समाज में जिस प्रकार यति समाज है, दिगम्बर समाज में लगभग वैसे ही 'भट्टारक' प्रणाली का इतिहास आदि जानने के लिए 'जैन हितैषी' में श्री नाथ रामजी प्रेमी का निबन्ध एवं जैनमित्र कार्यालय, सूरत से प्राप्त 'भट्टारक-मीमांसा' ग्रंथ पढ़ना चाहिए। इसीलिए राजपूताना प्रान्तीय प्रथम यति सम्मेलन (संवत् 1881, बीकानेर) में निम्नलिखित प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं हो सका। (क) उद्भट वेश न करना (ख) दवा आदि के सिवा जमीकन्द आदि के त्याग का भरसक प्रयत्न करना (ग) दवा आदि के सिवा पंचतिथियों में हरी वनस्पति आदि के त्याग का भरसक प्रयत्न करना (घ) रात्रिभोजन के त्याग की चेष्टा करना (ङ) आवश्यकता के सिवाय रात को उपाश्रय से बाहर न जाना (च) अंग्रेजी फैशन के बाल न रखना (छ) दीक्षित यति को साग-सब्जी खरीदने के समय बाजार न जाना (ज) धूम्रपान का त्याग (झ) साईकिल पर बैठ बाजार न घूमना (य) पंच प्रतिक्रमण के ज्ञाता न होने तक किसी को दीक्षा न देना / (ट) पर्व-तिथियों में प्रतिक्रमण अवश्य करना / इन प्रस्तावों से प्रगट है कि वर्तमान में इन सब बातों के विपरीत प्रचार है, तभी इनका विरोध समर्थन की आवश्यकता हुई। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210838
Book TitleJain Yati Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size580 KB
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