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जैन प्रमाण-शास्त्र : एक अनुचिन्तन D डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य, (चमेली कुटीर, १/१२८ डुमराव कॉलोनी, अस्सी, वाराणसी)
'नीयते परिच्छिद्यते ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन सो न्यायः' इस न्याय शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर न्याय उसे कहा गया है, जिसके द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है । तात्पर्य यह कि वस्तुस्वरूप के परिच्छेदक साधन (उपाय) को न्याय कहते हैं। न्याय के इस स्वरूप के अनुसार कुछ दार्शनिक 'लक्षण-प्रमाणाभ्यामर्य-सिद्धिः१- लक्षण और प्रमाण दोनों से वस्तु की सिद्धि मानते हैं। अतः वे लक्षण और प्रमाण दोनों को न्याय बतलाते हैं । अन्य दार्शनिक 'प्रमाणरर्थपरीक्षणं न्यायः'२ -प्रमाणों (प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्द-चारों) से वस्तु का परीक्षण (सही ज्ञान) होता है, अतएव प्रमाणों को वे न्याय कहते हैं। अनेक तार्किक 'पंचावयवप्रयोगो न्याय:'-पाँच अवयवों (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन अनुमानावयवों) के प्रयोग को, जिसे अनुमान कहा गया है, न्याय स्वीकार करते हैं।
जैन तार्किक गृद्धपिच्छ (उमास्वाति अथवा उमास्वामी ने) 'प्रमाणनयैरधिगमः' (त० सू० १-६) सूत्र द्वारा प्रमाणों और नयों से वस्तु का ज्ञान माना है । फलतः अभिनव धर्मभूषण ने 'प्रमाणनयात्मको न्यायः' कहकर प्रमाण
और नय को न्याय कहा है। अत: जैन दर्शन में प्रमाण और नय दोनों वस्त्वधिगम के साधन होने से न्याय हैं। इसका विशेष विवेचन हमने 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' में किया है।
प्रमाण का स्वरूप
जैनागमों में ज्ञान मार्गणा का निरूपण करते हुए आठ ज्ञानों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें तीन ज्ञानों (कुमति, कुश्रुत और कुअवधि-विभंग) को मिथ्याज्ञान और पाँच ज्ञानों (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल) को सम्यग्ज्ञान बतलाया है । कुन्दकुन्द ने उसका अनुसरण किया है। गृद्धपिच्छ ने उसमें कुछ नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति आदि पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान और कुमति आदि तीनों को मिथ्याज्ञान तो कहा ही है। इसके साथ ही उन सम्यग्ज्ञानों को प्रमाण और उन तीन मिथ्याज्ञानों को अप्रमाण भी प्रतिपादन किया है। समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान अथवा स्वपरावभासी बुद्धि को प्रमाण कहा है। उनके इन दोनों प्रमाण लक्षणों तथा तत्त्वार्थसूत्रकार के प्रमाण लक्षण
१-२-३. न्याय दी० टि०, पृ० ५, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १६५४. ४. वही, पृ० ५.
जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र : ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि शीर्षक, पृ० १५, ६. षट्खण्डागम १. १. १५ आदि । ७. नियमसार, गा० १०, ११, १२. ८. त० सू० १-६, १०, ३१. ६. आप्तमीमांसा १०१, स्वयम्भूस्तोत्र ६३.
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