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श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ असामान्य के स्वप्न-जगत् में चली गयी है, तभी वह पुराण-कथा हो गयी है। इसीसे प्रायः ये कथाएं रूपक, प्रतीक और दृष्टान्त के रूप में ही पाई जाती हैं। वे मात्र वास्तविक घटना की कथा नहीं कहतीं, वे तो बिना कहे ही जीवन के कई निगूढ सत्यों पर अनेक रंगों का प्रकाश डाल देती हैं।
___जैन पुराणों में भी इस कल्प-पुरुष यानी मनुष्य के परम काम्य अादर्श की कथा को ही लाक्षणिक रूप प्राप्त हुआ है। जैनों के यहाँ इन परम पुरुषों को शलाका पुरुष कहा गया है। उनके स्वरूप, सामर्थ्य, लीला और चरम प्राप्ति की भिन्न-भिन्न कोटियों के अनुसार उनकी अलग-अलग लाक्षणिक मर्यादाएं कायम कर दी गयी है।
__ जैन कवि-मनीषियों ने अपने आदर्श की चूड़ा पर तीर्थकर की प्रतिष्ठा की है। तीर्थकर वह व्यक्तिमत्ता होती है, जिसमें सारे लौकिक और अलौकिक ऐश्वर्य एक साथ प्रकाशित होते हैं। दैहिक दृष्टि से वह असामान्य बल वीर्य, शौर्य, विक्रम-प्रताप और सौन्दर्य का स्वामी माना जाता है। उसकी अंग-रचना का बड़ा ही विशद और सार्थक वर्णन शास्त्रों में मिलता है। श्रादि से अन्त तक बाल-रूप का सलौना और निर्दोष मार्दव उसके मुख पर और काया में विराजता रहता है। श्रायुष्य के प्रभाव से वह अविक्षत रहता है, और स्वयं काल भी उसकी देह का घात नहीं कर सकता। इसीसे उसे चरम शरीरी कहा गया है। वह लोक का अपराजित
आदित्य-पुरुष यानी पूषन् होता है, जिसमें सारे तत्त्वों का सारभूत तेज, रस और शक्ति समाई रहती है। किसी पूर्वजन्म में निखिल चराचर के कल्याण की कामना करने से वह तीर्थकर प्रकृति बांधता है। इसीसे जब वह तीर्थकर होकर पैदा होता है तो लोक में सर्वांगीण अभ्युदय प्रकट होता है। प्राणिमात्र के प्राण एक अव्याहत सुख से व्याप्त हो जाते हैं। तत्कालीन धरती पर वही लोक और परलोक की सारी सिद्धियों का प्रकाशक, विधाता और नेता होता है
आदि से अन्त तक तीर्थंकर की जीवन-लीला बड़ी काव्यमय और रोचक है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानव कवि की कल्पना का सारभूत मधु और तेजस् उस रूपक में साकार हुआ है। वह मानवों और देवों की महत्त्वाकांक्षा का चरम रूप है। तीर्थकर के गर्भ में आने के छह महीने पहले से पंच आश्चर्यों की वृष्टि होने लगती है। आस-पास के प्रदेशों में निरन्तर रत्न-वर्षा होती है, नन्दन के कल्प-वृक्षों से फूल बरसते हैं, गंधोदक की वृष्टि होती है, और आकाश में दुंदुभियों के घोष के साथ देव जय-जयकार करते हैं। पृथ्वी अपने भीतर के समूचे रस से संसार को नव-नवीन सर्जनों से भर देती है। तीर्थकर जिस रात गर्भ में आते हैं, उस रात उनकी माता ऐरावत हाथी, वृषभ, सिंह आदि के सोलह ' सपने देखती है, जो उस आगामी परम-पुरुष की अनेक विभूतियों के प्रतीक होते हैं। तीर्थकर के जन्म के समय इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है, देवलोक और मर्त्यलोक में अनेक आश्चर्य घटित होते हैं। सभी स्वर्गों के इन्द्र अपनी देवसभाओं सहित अन्तरिक्ष को दिव्य संगीत से गुंजित करते हुए, लोक में प्रभु के जन्म का उत्सव मनाने आते हैं। बड़े समारोह से शिशु भगवान् को मेरु पर्वत पर ले जाकर उन्हें पांडक शिला पर विराजमान किया जाता है, फिर देवांगनाओं द्वारा लाये हुए क्षीर-सागर के जल के एक हजार आठ कलशों से उनका अभिषेक किया जाता है। कई दिनों तक इंद्राणियां और देवियां प्रभु की माता की सेवा में नियुक्त रहती हैं। इसके उपरान्त भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों के प्रकरणों में उनके कुमार-काल और राज्यकाल की विशिष्ट कथाएं वर्णित होती है।
........... कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार चौदह । -संपादक
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