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जैन - न्याय में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क
जैन एवं जैनेतर - दर्शनों में स्मृति संबंधी अनेक चर्चाएँ मिलती हैं। व्यवहार में भी स्मृति एक परिचित विषय के रूप में देखी जाती है । किन्तु यह ज्ञान का प्रमाण बन सकती है अथवा नहीं? इसके संबंध में विभिन्न मत देखे जाते हैं। किसी ने इसे प्रमाण माना है तो किसी ने इसे प्रमाण मानना दोषपूर्ण कहा है। कहीं-कहीं दृष्टिकोण-भेद से दोनों बातें मानी गई हैं, अर्थात् एक दृष्टि से यह प्रमाण हो सकती है, परंतु दूसरी दृष्टि से यह अप्रमाण है। इस प्रकार स्मृति एक समस्याजनक विषय है।
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जैन-दर्शन में परोक्ष प्रमाण के पाँच भाग माने गए हैंस्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान तथा आगम । किन्तु वादिराजसूर के द्वारा परोक्ष प्रमाण का विभाजन प्रस्तुत किया गया है वह कुछ भिन्न है। उसके अनुसार अनुमान के दो भेद होते हैं - मुख्य तथा गौण । गौण अनुमान के तीन प्रकार होते हैंस्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क। इसके अलावा उन्होंने यह भी माना है कि स्मृति प्रत्यभिज्ञान का कारण है, प्रत्यभिज्ञान तर्क का कारण है और तर्क अनुमान का कारण है। संभवत: इसीलिए सूरिजी ने इन्हें भी अनुमान की कोटि में रखा है। उन्होंने आचार्य अकलंक की रचना 'न्याय विनिश्चय' पर टीका लिखी है। अतः उन पर अकलंक का प्रभाव रहा हो, ऐसा संभव है। ऐसा ही सोचते हुए उनकी प्रमाण-विभाजन-प्रक्रिया के संबंध में पं. कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है- २ न्यायविनिश्चय के तीन परिच्छेदों में अकलंक ने क्रम से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण का ही कथन किया है। अतः वादिराजसूरि ने परोक्ष के अनुमान और आगम भेद करके शेष तीन परोक्ष प्रमाणों को अनुमान में गर्भित कर लिया प्रतीत होता है।
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डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा वाराणसी...
जाने के बाद भी उसके मानस पटल पर पूर्व अनुभव की रेखाएँ बनी रहती हैं और वह कह बैठता है- दह दह शब्द उसके पूर्व अनुभव को सूचित करता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है-'वासनोदबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः ।
वह ज्ञान जो वासना के उद्बोध के कारण उत्पन्न होता है उसे स्मृति कहते हैं। संस्कार और वासना दोनों ही शब्द उस छाप को इंगित करते हैं जो व्यक्ति पर पूर्व अनुभव के फलस्वरूप पड़ी होती है। कोई व्यक्ति आगरा जाता है और ताजमहल देखता है। उसके मन पर ताजमहल के रूप-रंग, आकार-प्रकार की एक छाप पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप अपने घर आने पर, यद्यपि ताजमहल उसके सामने नहीं होता है, वह अपने पड़ोसियों को उसके विषय में सभी बातें सुनाता है। दो वर्ष, चार वर्ष या उससे भी अधिक समय व्यतीत होने पर जब भी वह आगरा की चर्चा सुनता है उसके मानस पर ताजमहल की रूपरेखा चमक उठती है। उसे लगता है, जैसे ताजमहल उसके सामने खड़ा है। यही संस्कारगत या वासनागत ज्ञान है। जिसे स्मृति कहते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान में भी इसका विश्लेषण प्राप्त होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की धारणा, प्रत्यस्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा के माध्यम से स्मृति की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। जैन दर्शन स्मृति के कारण स्वरूप, संस्कार या वासना पर अधिक बल देता है जिसका उद्बोध समानता, विरोध, आवश्यकता आदि विभिन्न कारणों से ही है।
स्मृति के रूप-- भारतीय दर्शन में स्मृति के दो रूप देखे जाते हैं
आचार्य माणिक्यनन्दी ने स्मृति को परिभाषित करते हुए कहा है- संस्कारोद्बोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः । संस्कार के उद्बोधित होने पर प्राप्त होने वाला ज्ञान स्मृति है । भूतकाल में व्यक्ति को जो अनुभव प्राप्त होते हैं वे उस पर अपना संस्कार अंकित कर जाते हैं जिसके कारण अनुभव-काल समाप्त हो
१. ग्रन्थरूप - वैदिक साहित्य में श्रुति और स्मृति को प्रमुख स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि ऐसे ग्रन्थ है जिनके अध्ययन के बिना वैदिक धर्मदर्शन का ज्ञान अधूरा ही रह जाता है। अतः इनके संबंध में भी यह समस्या उठती है कि इन्हें प्रमाण की कोटि में रखा जाए अथवा अप्रमाण की कोटि में? चूँकि यह समाज के सामने खुले रूप में है, इसलिए इसे यदि स्मृति का सामाजिक रूप कहें तो अनुचित न होगा।
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