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D देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न
जैन परम्परा में तर्क-विद्या और तर्क-प्रधान वाङ्मय १ के प्राद्य प्रणेता प्राचार्य सिद्धसेन का अन्तरंग परिचय
ऐतिहासिक विवेचना के साथ प्रस्तुत है ।
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जैन न्याय के समर्थ पुरस्कर्ता : सिद्धसेन दिवाकर
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भारतवर्ष पर सरस्वती की बड़ी कृपा रही है जिसके फलस्वरूप यहाँ पर समय-समय पर अनेक लेखक, कवि, दार्शनिक और विचारक हुए हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भी उन्हीं मूर्धन्य लेखकों में से एक हैं जिन्होंने जैन साहित्य को अनेक दृष्टियों से समृद्ध बनाया जैन परम्परा में तर्क-विद्या और तर्क-प्रधान संस्कृत वाङ्मय के वे आद्य प्रणेता हैं।' कवित्व की दृष्टि से जब हम उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो कवि कुल गुरु कालिदास और अश्वघोष का सहज ही स्मरण हो आता है। पण्डित सुखलालजी ने उनको प्रतिभा-मूर्ति कहा है, यह अत्युक्ति नहीं है। जिन्होंने उनका प्राकृत ग्रन्थ 'सन्मति तर्क' देखा है, या उनकी संस्कृत द्वात्रिशिकाएँ देखी हैं, वे उनकी प्रतिभा की तेजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । जैन-साहित्य की जो न्यूनता थी, उसी की पूर्ति की ओर उनकी प्रतिभा का प्रयाण हुआ। उन्होंने चवित-चर्वण नहीं किया। उन्होंने टीकाएँ नहीं लिखीं किन्तु समय की गतिविधि को निहार कर उन्होंने तर्क-संगत अनेकान्तवाद के समर्थन में अपना बल लगाया। सन्मति तर्क जैसे महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रन्थ का सृजन किया। सन्मति तर्क जैन दृष्टि से और जैन मन्तव्यों को तर्क शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करने वाला जैन-साहित्य में सर्वप्रथम ग्रन्थ है। उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों ने उसका आश्रय लिया है।
सन्मति तर्क में नयवाद का अच्छा विवेचन है। इसमें तीन काण्ड हैं । प्रथम काण्ड में द्रव्याथिक और पर्याया थिक दृष्टि का सामान्य विचार है । दूसरे काण्ड में ज्ञान और दर्शन पर सुन्दर चर्चा है। तृतीय काण्ड में गुण और पर्याय, अनेकान्त दृष्टि और तर्क के विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है ।
नय सात हैं । आगमों में सात नयों का उल्लेख है। नंगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवं भूत । इन सभी नयों को द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो नयों में समाविष्ट किया जा सकता है । द्रव्याथिक दृष्टि में सामान्य या अभेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश हो जाता है। विशेष या भेदमूलक जितनी भी दृष्टियाँ हैं उन सबका समावेश पर्यायाथिक दृष्टि में हो जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने इन दोनों दृष्टियों का समर्थन करते हुए लिखा कि श्रमण भगवान महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टियाँ हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक, शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं की शाखाएँ-प्रशाखाएं हैं। तत्त्व का कोई पहलू इन दो दृष्टियों का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्योंकि या तो वह सामान्य होगा या विशेषात्मक । इन दो दृष्टियों को छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता। आचार्य सिद्धसेन ने अनुभव किया कि दार्शनिक जगत् में इन दो दृष्टियों के कारण ही झगड़ा होता है। कितने ही दार्शनिक द्रव्याथिक दृष्टि को ही अन्तिम सत्य मानते हैं, तो कितने ही पर्यायाथिक दृष्टि को। इन दोनों दृष्टियों का एकान्त आग्रह ही क्लेश का कारण है । अनेकान्त दृष्टि ही दोनों का समान रूप से सम्मान करती है। वही सत्य दृष्टि है।
इस प्रकार कार्य-कारण भाव का जो संघर्ष चल रहा है, उसे अनेकान्तवाद की दृष्टि से सुलझाया जा सकता है। कार्य और कारण का एकान्त भेद मिथ्या है। न्याय-वैशेषिक दर्शन एतदर्थ ही अपूर्ण है। सांख्य का यह मन्तव्य है कि कार्य और कारण में एकान्त अभेद है। कारण ही कार्य है अथवा कार्य, कारण रूप ही है । यह अभेद-दृष्टि भी
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