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नैतिक-प्रतिमान : एक या अनेक? सन्दर्भ :
६. समयसार टीका, गाथा ३०५। १. आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठे। - भगवतीसूत्र
योगशास्त्र, ४/५। २. डॉ० राधाकृष्णन् जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, राजपाल एण्ड सन्स, अध्यात्मतत्त्वालोक, ४/६। दिल्ली, पृष्ठ २५९।
आचाराङ्ग, १/३/२। ३. हर्बर्ट स्पेन्सर, फर्स्ट प्रिन्सपल्स, वाट्स एण्ड को०, छठा संस्करण १०. समवायाङ्ग ४-५, प्रज्ञापना पद ८। लंदन, पृष्ठ ६६।
११. अभिधान-राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० ३०१। C.D. Board, Five Types of Ethical Theories, p. 16.
१२. आचाराङ्ग, १/२/३/८१। F.H. Bradley, Ethical Studies, Oxford University Publication, १३. आचाराङ्ग, २/३/१५/१०१-१०५। Chapter II.
१४. उत्तराध्ययन ३२/१००, १०१।
नैतिक-प्रतिमान : एक या अनेक ?
सामान्यतया एक विचारशील प्राणी के नाते मनुष्य को स्वयं ही जीवन में दो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक प्रतिमानों अपने और दूसरे व्यक्तियों के चरित्र एवं व्यवहार की उचितता तथा का उपयोग करता है। नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जन अनुचितता के सम्बन्ध में अथवा मानव जीवन के किसी साध्य के साधारण में अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहरा मतभेद है। शुभत्व और अशुभत्व के बारे में निर्णय लेने होते हैं। युगों से मनुष्य नैतिक प्रतिमानों (Moral Standards) की इस विविधता और इस प्रकार के निर्णय लेता रहा है कि अमुक शुभ है और अमुक परिवर्तनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। क्या ऐसे अशुभ है। यह करना उचित है और यह करना अनुचित है। फिर सार्वभौम नैतिक प्रतिमान सम्भव हैं जिन्हें सार्वलौकिक और सार्वकालीन भी मानव-जीवन के साध्य एवं आचरण के सम्बन्ध में लिये जाने मान्यता प्राप्त हो? यद्यपि अनेक नीतिवेत्ताओं ने अपने नैतिक प्रतिमान वाले इन निर्णयों को लेकर मनुष्यों में एकरूपता नहीं देखी जाती का सार्वलौकिक, सार्वकालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा है। एक ही प्रकार के आचरण को किसी एक देश, काल एवं सभ्यता अवश्य किया है, किन्तु जब वे ही आपस में एक मत नहीं हैं, तो में उचित ठहराया जाता है तो दूसरे में अनुचित। मात्र यही नहीं, एक फिर उनके इस दावे को कैसे मान्य किया जा सकता है? नीतिशास्त्र व्यक्ति जिसे अच्छा (शुभ) कहता है, दूसरा व्यक्ति उसी आचार-व्यवहार के इतिहास में नियमवादी सिद्धान्तों में कबीले के बाह्यनियमों की को बुरा (अशुभ) कहता है। मूल प्रश्न यह है कि नैतिकता-सम्बन्धी अवधारणा से लेकर अन्तरात्मा के आदेश तक, तथा साध्यवादी परम्परा इन निर्णयों की विविधता का क्या कारण है- वस्तुत: मनुष्यों की में स्थूल स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, पूर्णतावाद नीति-सम्बन्धी अवधारणाओं, मापदण्डों या प्रतिमानों की विविधता और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक प्रतिमान प्रस्तुत किये गये हैं। ही नैतिक निर्णयों की इस भिन्नता का कारण मानी जा सकती है। यदि हम नैतिक मूल्याङ्कन का आधार नैतिक आवेगों (Moral जब भी हम नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी Sentiments) को स्वीकार करते हैं, तो नैतिक मूल्याङ्कन सम्भव ही कोई मापदण्ड, प्रतिमान या मानक (Moral Standard) अवश्य होता नहीं होगा, उनमें विविधता स्वाभाविक है। नैतिक आवेगों की इस है, जिसके आधार पर हम किसी व्यक्ति के चरित्र, आचरण अथवा विविधता को समकालीन विचारक एडवर्ड वेस्टरमार्क ने स्वयं स्वीकार कर्म का नैतिक मूल्यांकन (Moral Valuation) करते हैं। विभिन्न देश किया है। उनके अनुसार इस विविधता का कारण व्यक्तियों के परिवेश, काल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या प्रतिमान धर्म और विश्वासों में पायी जाने वाली भिन्नता है। जो विचारक कर्म अलग-अलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन होता रहा के नैतिक औचित्य एवं अनौचित्य के निर्धारण के लिये विधानवादी है। प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय को नैतिकता का प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, समाज, राज्य या धर्म के द्वारा प्रस्तुत प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई संस्कृति में सहनशीलता विधि-निषेध (यह करो और यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक
और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान माना जाने लगा। यह एक । प्रतिमान स्वीकार करते हैं, उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान या नैतिकता के मापदण्ड अनेक मतभेद है कि जाति (समाज), राज्यशासन और धर्मग्रन्थों द्वारा प्रस्तुत रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जावे? पुनः प्रत्येक प्रतिमानों का उपयोग करते रहे हैं। मात्र यही नहीं एक ही व्यक्ति अपने जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग
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