Book Title: Jain Niti Darshan ke Manovaigyanik Adhar Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ जैन नीति-दर्शन के मनोवैज्ञानिक आधार नैतिक-दर्शन का प्रमुख कार्य जीवन के साध्य का निर्धारण कर अप्रभावित है। सच्चा जीवन तो जागृति है, अप्रमत्त चेतना है। उस सन्दर्भ में हमारे आचरण का मूल्याङ्कन करना है। नैतिक-दर्शन जैन-दर्शन इसे ही जीव या आत्मा का स्वरूप कहता है। और मनोविज्ञान दोनों के अध्ययन की विषय-वस्तु प्राणीय-व्यवहार है। मनोविज्ञान का कार्य व्यवहार की तथ्यात्मक प्रकृति का अध्ययन चेतना के तीन पक्ष और जैन-दर्शन है तथा नैतिक दर्शन का कार्य व्यवहार के आदर्श (साध्य) का निर्धारण मनोवैज्ञानिकों ने चेतना का विश्लेषण कर उसके तीन पक्ष माने एवं व्यवहार का मूल्याङ्कन है, किन्तु आदर्श का निर्धारण तथ्यों की हैं- ज्ञान, अनुभूति और सङ्कल्प। चेतना को अपने इन तीन पक्षों अवहेलना करके नहीं हो सकता है। हमें क्या होना चाहिए? यह बहुत से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता है। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं? हमारी क्षमताएँ के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन-जीव ज्ञान, अनुभूति और क्या हैं? ऐसा साध्य या आदर्श जिसे उपलब्ध करने की क्षमताएँ हममें सङ्कल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैन न हों, एक छलना ही होगा। जैन-दर्शन ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य विचारकों की दृष्टि में चेतना के ये तीनों पक्ष नैतिक आदर्श एवं नैतिक को अधिक गम्भीरता से समझा है और अपने नैतिक दर्शन को ठोस साधना-मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन आचार-दर्शन में मनोवैज्ञानिक नींव पर खड़ा किया है। चेतना के इन तीन पक्षों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण किया गया है। जैन-दर्शन का आदर्श मोक्ष है और मोक्ष अनन्त चतुष्टय नैतिक साधक (Moral Agent) का स्वरूप अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति जैन-दर्शन में हमें मानव-प्रकृति एवं प्राणीय-प्रकृति का गहन की उपलब्धि है। वस्तुत: मोक्ष चेतना के इन तीनों पक्षों की पूर्णता विश्लेषण प्राप्त होता है। जब महावीर से यह पूछा गया था कि आत्मा का द्योतक है। जीवन के ज्ञानात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त ज्ञान एवं क्या है? और आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर अनन्त दर्शन में, जीवन के भावात्मक या अनुभूत्यात्मक पक्ष की पूर्णता ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि अनन्त सौख्य में और सङ्कल्पनात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त शक्ति से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व में मानी गयी है। जैन नैतिक साधना पथ भी चेतना के इन्हीं तीन ही आत्मा का साध्य है। वस्तुत: जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, तत्त्वों- ज्ञान, भाव और सङ्कल्प के साथ सम्यक् विशेषण का प्रयोग वहाँ-वहाँ समत्व-संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य करके निर्मित किया गया है। ज्ञान से सम्यक् ज्ञान, भाव से सम्यक् विषमताओं को दूरकर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना यह जीवन दर्शन और सङ्कल्प से सम्यक्चारित्र का निर्माण हुआ है। इस प्रकार या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व जैन-दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ तीनों पर मनोवैज्ञानिक का संस्थापन ही जीवन का लक्ष्य है। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में दृष्टि से विचार हुआ है। जीवन गतिशील सन्तुलन है'। स्पेन्सर मानता है कि परिवेश में निहित तथ्य हमारे सन्तुलन को भङ्ग करते रहते हैं और जीवन अपनी नैतिक जीवन का साध्यः समत्व का संस्थापन क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता हमारे नैतिक आचरण का लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न मनोविज्ञान है। यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। और नैतिक दर्शन दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन में विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी इसे मोक्ष कहकर अभिव्यक्त किया गया है, किन्तु यदि हम जैन-दर्शन अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के अनुसार मोक्ष का विश्लेषण करें तो मोक्ष 'वीतरागता की अवस्था वे संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व का है और वीतरागता 'चेतना के पूर्ण समत्व की अवस्था है। इस प्रकार संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण जैन-दर्शन में समत्व को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। है। समायोजन और संतुलन के प्रयास की उपस्थिति ही जीवन है और यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु उसका अभाव मृत्यु है। मृत्यु अन्य कुछ नहीं, मात्र शारीरिक स्तर समत्व ही मानवीय जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यह ही पर सन्तुलन बनाने की इस प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है। हमारा स्वभाव है और जो स्वभाव है, वही आदर्श है। स्वभाव से अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है और न मृत्यु। प्रथम भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन, मार्क्स प्रभृति उसका एक शरीर में प्रारम्भ बिन्दु है तो दूसरा उसके अभाव की उद्घोषणा कुछ विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह करने वाला तथ्य। जीवन दोनों से ऊपर है जन्म और मृत्यु तो एक एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव शरीर में उसके आगमन और चले जाने की सूचनाएँ भर हैं, वह उनसे वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जाता है। जैन-दर्शन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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