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जैन निर्वाण : परम्परा और परिवृत
निर्वाणस्थ आत्मा को स्थिति
कैवल्य भाव मोक्ष है । चार घातीय कर्मों का यहाँ विनाश हो जाता है। शेष चार कर्मों की निर्जरा होने पर द्रव्य - मोक्ष होता । द्रव्य - मोक्ष की स्थिति के बारे में जैन धर्म की विभिन्न परम्पराओं में प्रमुखतया निम्नलिखित बातें मिलती हैं :
* पुद्गल द्रव्य के निकल जाने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में रह जाती है ।
* इससे खाली प्रदेशों को आत्म द्रव्य से भरने के बाद उसका आकार शरीर का दो तिहाई रह जाता है ।
* वह ऊपर उठती है और लोकाग्र पर जाकर सिद्धशिला पर टिक जाती है ।
* उसकी अलोकाकाश में गति नहीं होती क्योंकि वहाँ धर्म द्रव्य की सत्ता नहीं होती ।
* सिद्धों में परस्पर अवगाहना होती है- एक सिद्ध होता है वहाँ एक-दूसरे में प्रवेश पाकर अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं ।
जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अनंता भवक्खय विमुक्का । अनोन्न समोगाढा पुट्ठा सब्बे वि लोगंते' ||
* जैसे दग्ध बीजों से फिर अंकुर पैदा नहीं होते वैसे ही मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते |
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जहा दड्ढाणं बीयाणं
न जायंति पुण अंकुरा ।
कम्म बसु दड्ढे न जायंति भवांकुरा ॥
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* सिद्धात्माएँ अद्वितीय सुखमय होती हैं । चक्रवर्ती, भोगभूमि या मनुष्य धरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्र - इन सब का सुख पूर्व-पूर्व की अपेक्षा अनन्त अनन्त गुणा माना गया है। इन सब के त्रिकालवर्ती सुख को भी यदि एकत्रित कर लिया जाये, तो भी सिद्धों का एक क्षण का सुख उन सबसे अनन्त गुणा है |
चक्कि कुरु फणि सुरिंद देवहमिंदे जं सुहं तिकालभवं । ततो अनंत गुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥
कर्म : भाव ही नहीं, द्रव्य भी
जैन परम्परा के अनुसार कर्म मात्र मनोगत भाव नहीं होते, द्रव्य होते हैं और आस्रव द्वारा जीव के प्रदेशों में व्याप्त होकर उसे वस्तुतः लिप्त करते हैं । डा० नथमल टाटिया के अनुसार : "कर्म केवल आत्मनिष्ठ हो नहीं हैं, जैसा कि बौद्ध दार्शनिक सोचते हैं, वे वस्तुनिष्ठ भी हैं । कर्म का यह सम्प्रत्ययन कि वह केवल भाव ही नहीं बल्कि द्रव्य भी है, जैन दार्शनिकों की अपनी विशेषता है" ।
१. विशेषावश्यकभाष्य, ३१७६ ।
२. दशाश्रुतस्कन्ध ( भद्रबाहु प्रथम ), ५। १५ ।
३. त्रिलोकसार ( आचार्य नेमीचन्द्र ), ५६० ।
४. Studies in Jain Philosophy — Page xix.
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