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जैन धर्मशास्त्रों और आधुनिक विज्ञान के बालोक में पृथ्वी
( अ ) प्रस्तावना
उसका
मानव एक चिन्तनशील प्राणी है।' वह अपने आसपास की वस्तुओं तथा वातावरण के रहस्य को समझने के लिए चिर काल से प्रयत्नशील रहा है । संसारी मानव की इन्द्रियों की प्रकृति बहिर्मुखी है, इसलिए अपने अन्तर की ओर झांकने की बजाय, बाह्य जगत के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। असंख्य संसारी प्राणियों में से वह कोई धीर-वीर ही होगा जिसने सर्वप्रथम आत्म-तत्त्व को जानने का यत्न किया।
डा० दामोदर शास्त्री
(क) भारतीय संस्कृति में पृथ्वी
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मानव के साहित्यिक मस्तिष्क ने इस सृष्टि को किसी अदृश्य व देवी महासाहित्यकार की अनुपम, मनोहर व चिरन्तन कृति के रूप में देखा। उसके सौन्दर्यानुरागी स्वभाव ने प्रातःकालीन उषा को कभी एक सुन्दर नर्तकी के रूप में, तो कभी एक बेमिक संचरणशील नवयौवना नारी के रूप में निहारा । और, यह धरती व आकाश - जिसकी छत्रछाया में वह रहता आया था— उसके लिए माता व पिता थे।"
पृथ्वीमाता के प्रति भारतीय संस्कृति में कितना श्रद्धास्पद स्थान है, यह इसीसे प्रमाणित है कि प्रत्येक भारतीय हिन्दू प्रातः काल उठते ही, समुद्रवसना व पर्वतस्तनमंडिता अलौकिक धरती माता के प्रति यह प्रार्थना करता है :
१.
मति जदो णिच्च मणेण णिउणा जदो दु ये जीवो। मणउक्कडा य जम्हा, तम्हा ते माणुसा भणिया (पंचसंग्रहप्राकृत, १ / ६२ ) ॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा - १४६,
२.
पराज्य खानि व्यगुणत् स्वयम्भूः तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मा (कठोप० २/४/१) ।
३. कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमँक्षत् आवृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ( कठोप० २/४/१) ।
४.
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति (अथर्ववेद, १० / ८ / ३२ ) ।
५. ऋग्वेद, १/६२/४
६. ऋग्वेद, ७/८० / २
७.
(क) माता भूमिपुत्रोऽहं पृथिव्या (अर्थ० १२ / १ / १२) तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः (जुर्वेद २५ /१७)। पृथिवि मातः ( जू० १० / २२) ।
(ख) जिज्ञासा व समाधान की प्रक्रिया के क्रम में ही सम्भवतः मानव ने पृथ्वी व अंतरिक्ष रूपी माता-पिता के भी जनक या । बिर्भात पालक (परम पिता) की कल्पना की होगी : यावाभूमी जनयन्देव एकः (श्वेता० उप० ३/३) द्यावापृथिवी विमति (ऋ० १० / ३१ / ८ ) । तस्मिन् तस्थुर्भुवनानि विश्वा (यजु० २२ / १२) । एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ( ऋ० ६/३६/४) । अशरमानावीशते देव एकः (स्वेता उप० १ / १० ) ।
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(ग) वैदिक ऋषि के अनुसार इस पृथ्वी पर अनेक धर्मों तथा अनेक भाषाभाषी लोगों का अस्तित्व रहता आया हैविती बहुधा विवाच नानाधर्माणं पृथिवी यथीकसम्' (अथर्व० १२ / २ / ४५) ।
विभ्रती
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