________________ जैनधर्म सर्वप्राचीन धर्म-परम्परा 126 .............-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-......... .............................. ही गत डेढ़ सौ वर्षों में वह शनैः शनैः सातवीं शती ईस्वी में बौद्धधर्म की शाखा के रूप में उत्पन्न एक छोटे से गौण सम्प्रदाय की स्थिति से उठकर कम से कम वैदिक धर्म जितनी प्राचीन एवं एक सुसमृद्ध संस्कृति से समन्वित स्वतन्त्र तथा महत्त्वपूर्ण भारतीय धार्मिक परम्परा की स्थिति को प्राप्त हो गया है। डॉ. हर्मन जेकोबी प्रभृति प्रकाण्ड प्राच्यविदों द्वारा बौद्ध एवं जैन अनुश्रुतियों के तुलनात्मक अध्ययन, परीक्षण एवं अन्वेषण द्वारा यह तथ्य सर्वथा प्रमाणित हो गया है कि जैन परम्परा के २४वें एवं अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर (ईसापूर्व 566-527) बौद्धधर्म प्रवर्तक शाल्वपुत्र गौतमबुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे और वह प्राचीन जैनधर्म के मात्र पुनरुद्धारक थे, प्रर्वतक नहीं--जैनधर्म उनके जन्म के बहुत पहले से प्रचलित था और बौद्ध धर्म की संरचना में भी उसका प्रभाव रहा / बौद्ध-साहित्य में जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता एवं आपेक्षिक प्राचीनता के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं, कई पूर्ववर्ती तीर्थकरों के भी इंगित हैं। महावीर के पूर्ववर्ती २३वें तीर्थक र पार्श्वनाथ (ई० पू० 877-777) की ऐतिहासिकता भी सभी आधुनिक प्राच्य विदों ने मान्य कर ली है। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनेक साधु महावीर के समय तक विद्यमान थे। ___ अब महाभारत में वर्णित व्यक्तियों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता भी स्थूल रूप से मान्य की जाने लगी है-उसके प्रधान नायक नारायण कृष्ण की ऐतिहासिकता में सन्देह नहीं किया जाता। अतएव अनेक विद्वानों का मत है कि यदि कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति स्वीकार किया जाता है तो कोई कारण नहीं कि उन्हीं कृष्ण के ताउजात भाई, २२वें जैन तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) की ऐतिहासिकता को स्वीकार न किया जाय। भगवान् पार्श्वनाथ के प्राय: समकालीन मध्य एशिया के खिल्दियन सम्राट नेबुचेडनजर के दानशासन प्रभृति कतिपय पुरातात्त्विक साक्ष्य भी तीर्थकर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता की पुष्टि करते हैं। २१वें तीर्थकर नमिनाथ का जन्म विदेहदेश की मिथिला नगरी में हुआ था और उनका एकत्व ब्राह्मणीय अनुश्रुति के विदेह जनकों के पूर्वज विदेहराज नमि से किया जाता है। कालान्तर में ब्रह्मवादी जनको द्वारा प्रेरित उपनिषदों की आत्मविद्या के मूल पुरस्कर्ता यह तीर्थंकर नमि ही माने जाते हैं। अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्थान जैन परम्परा में अति सम्मानीय है, और उस युग के व्यक्तियों एवं घटनाओं का जो वर्णन जैन रामायणों में प्राप्त होता है वह ब्राह्मणीय पुराणों की अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत एवं विश्वसनीय है। उस समय २०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का धर्मतीर्थ चल रहा था। ब्राह्मणीय पुराणों में जैनधर्म और जैनों के अनेक उल्लेख प्राप्त हैं जो जैन परम्परा की आपेक्षिक प्राचीनता सिद्ध करते हैं / भागवत आदि प्रायः सभी मुख्य पुराणों में भगवान ऋषभदेव को विष्णु का अष्टम अवतार मान्य किया है और उनका सम्बन्ध जैनधर्म से सूचित किया है। ऋषभदेव जैन परम्परा के प्रथम तीर्थकर हैं। __ ब्राह्मण परम्परा के सर्वप्राचीन ग्रन्थ स्वयं वेद में-ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि में ऋषभादि कई तीर्थंकरों तथा निर्ग्रन्थ जैन मुनियों, यतियों, तपस्वियों के अनेक उल्लेख हैं। यह तथ्य जैन परम्परा को प्राग्वैदिक सिद्ध कर देता है। सिन्धुघाटी की प्राग्वैदिक एवं प्रागार्य सभ्यता के हड़प्पा में प्राप्त अवशेषों में दिगम्बर कायोत्सर्ग जिनमूर्ति का धड़ मिला है, और उसकी भी पूर्ववर्ती मोहनजोदड़ों के अवशेषों में प्राप्त मुद्राओं आदि से उस काल एवं उस प्रदेश में वृषभलांछन कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिराज ऋषभ की उपासना के साक्ष्य मिले हैं। इस प्रकार सुदूर प्राग्वैदिक, प्रागार्य, प्रागैतिहासिक युग तक जैन परम्परा का अस्तित्व पहुँच जाता है, और ये संकेत इस धार्मिक परम्परा को सभ्य' मानव की सर्वप्राचीन जीवित परम्परा सिद्ध कर देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org