________________ 11. देखें - प्रबन्धकोश, भद्रबाहु कथानक. 12. उद्धृत - (क) रतनलाल दोशी, आत्मसाधना संग्रह, पृ० 441. (ख) भगवतीआराधना, भाग 1, पृ० 197. 83. Bradle, Ethical, Studies. 14. मुनि नथमल, नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० 3-4. 15. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, 5/21. 16. उत्तराध्ययनसूत्र, 25/19. 17. आचारांग, 1/2/3/75. 18. सागरमल जैन, सागर जैन-विद्या भारती, भाग 1, पृ० 153. 19. जटासिंहनन्दि, वरांगचरित, सर्ग 25, श्लोक 33-43. 20. आचारांगनियुक्ति, 19. 21. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ० 152. 22. जिनसेन, आदिपुराण, 11/166-167. 23. अन्तकृतदशांग, 3/1/3. 24. उपासकदशांग, 1/48. 25. वही, 1/48. 26. वही, 1/48. 27. ज्ञाताधर्मकथा, 8 (मल्लिअध्ययन), 16 (द्रौपदी अध्ययन). 28. अन्तकृद्दशांग, 5/1/21. 29. स्थानांग, 10/760 / विशेष विवेचन के लिये देखें धर्मव्याख्या, जवाहर लालजी म. और धर्म-दर्शन, शुक्लचन्द्रजी म. 30. धर्मदर्शन, पृ० 86. 31. दशवैकालिकनियुक्ति, 158. 32. नन्दीसूत्र - पीठिका, 4-17. जैन धर्म और सामाजिक समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष सन्दर्भ में) मानव समाज में स्त्री-पुरुष, सुन्दर-असुन्दर, बुद्धिमान्-मूर्ख, साधना के क्षेत्र हों, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को आर्य-अनार्य, कुलीन-अकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्शा, धनी-निर्धन आदि के जन्मना आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं / यह सत्य है कि भेद प्राचीनकाल से ही पाये जाते हैं / इनमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव कुछ मानव सृजित / ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेगें, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति कारण हैं / यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक-विकास, आधार पर अपनाये गये व्यवसाय या कार्य होंगे / व्यवसाय या कर्म कार्य-क्षमता, व्यावसायिक-योग्यता आदि की दृष्टि से विषमता या के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए तरतमता होती है / किन्तु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये - यही के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं सामाजिक समता का आधार है / यह सत्य है कि मानव समाज में है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी पायी जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किन्तु इसे मानव समाज में होगें, किन्तु यह अधिकार भी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का वर्ग-भेद या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती हैं। हम ही बना रहे / सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, वही कालक्रम में धनवान् में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो / उसका तात्पर्य है मानव या सम्पत्तिशाली हो जाता है / एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान् अथवा समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तथा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान् तो दूसरा मूर्ख प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्य अथवा एक सुन्दर तो दूसरा कुरूप हो सकता है / अत: इस प्रकार की क्षेत्र निर्धारित कर सके / इस सामाजिक समता के सन्दर्भ में जहाँ तक तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार जैन आचार्यों के चिन्तन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविक पर विभिन्न वर्गों में बाँट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन योग्यता जन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कार जन्य तरतमता को स्वीकारते हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हों, चाहे कला, विद्या अथवा हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org