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जैन धर्म में वैज्ञानिकता के तत्व
दर्शन दिग्दर्शन
यह विज्ञान का युग है । इसमें बुद्धिवाद और प्रयोगवाद की प्रधानता है । मानव भौतिक जीवन को समृद्ध बनाने में अपने निरन्तर अन्वेषक स्वभाव के कारण उसने -
१. यातायात, संचार, स्वचालित यंत्र आदि के माध्यम से कायिक सुविधाएं अगणित रूप से बढ़ाई हैं। २. बाचनिक दूरियों को तो लगभग शून्यवत ही कर दिया है। ३. मानसिक दूरियों को कम किया है एवं मानव में विश्वबंधुत्व की भावना को पोषित किया है ।
- डां. नंदलाल जैन
विज्ञान ने कृषि, खाद्य, जीव विज्ञान, औषध एवं चिकित्सा, तंतुकला, संश्लेषण-शिल्प एवं अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण आदि के माध्यम से मानव मन को अत्यन्त प्रभावित किया है। इसके साथ पिछली अनेक सदियों में धर्म की प्रभावकता में कमी आई है। इससे व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रिय एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में नैतिक विश्रृंखलन आया है। इस स्थिति से न केवल धर्माचार्य अपितु राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री एवं वैज्ञानिक भी चिंतित हो उठे हैं एवं एक दूसरे को दोषारोपित कर रहे हैं। इनकी सत्ता और सम्पति की मनोवृत्ति से साठगांठ से हुई विकृति पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है । वस्तुतः आइंस्टीन जैसे विवेकशील वैज्ञानिकों ने अनुभव किया, “बिना विज्ञान के धर्म अंधा है और बिना धर्म के विज्ञान लंगड़ा है।” फलतः आज के समन्वित विकास के युग में धर्म और विज्ञान का “पंगु - अंधवत” संयोग एक अनिवार्य आवश्यकता है।
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मध्य युग में विज्ञान प्रभावित पश्चिम में तो यह धारणा बलवती हो गई थी कि धर्म प्रायः अवैज्ञानिक ही है। इसी कारण उसी प्रभावकता में निरन्तर कमी होती रही है। इसके विपरीत में भारतीय संस्कृति की धारा में ऐसी कोई धारणा तो नहीं बनी और न ही वैज्ञानिकों को पश्चिम के समान प्रताड़ित ही किया गया। फिर भी कुछ दशकों से धर्म की वैज्ञानिकता पर संदेह अवश्य जन्म लेता रहा है। ऐया लगता है कि जैसे वैज्ञानिकों ने अपने
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