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२४. यदाह--'३ वाले बुठे नपुंसे य, जड्ढे कीवे व वाहिए।
तेणे यावगारीय उम्मते य अंदसणे ॥ १ ॥
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दासे दुट्ठे (य) अणत्त जुंगिए इय ।
ओबद्ध य भयए सेहनिप्फेडिया इय || २ || स्थानांगसूत्रम्, अभयदेवसूरिवृत्ति, (प्रकाशक- सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, विक्रम संवत् १९९४) सूत्र ३ / २०२, वृत्ति पृ. १५४
२५. से असई उच्चागोए असं णीयागोए ।
णो हीणे णो अइरिते णो पीहए ।।
इतिसंखाय के गोतावादी, के माणावादी, कंसि वा एगे गिज्झे ?
भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेक प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है। उसने सदैव ही विषमतावादी और विषमतावादी और वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है। जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरुष के समकक्ष ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुष प्रधान परिवेश में ही हुआ है, फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहगामी ब्राह्मण परम्परा के व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे।
यहाँ हम आगमों और व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भों की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। जैन आगम साहित्य एक काल की रचना नहीं है। वह ईसा पूर्व पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और परिवर्तित होता रहा है अतः उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं हैं। पुनः उनमें भी जो कथा भाग है, वह मूलतः अनुश्रुतिपरक और प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है। अतः उनमें अपने काल से भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थित हैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है। जहाँ तक आगमिक व्याख्या साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित है अतः इसकी
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तम्हापंडिते णो हरिसे णो कुज्झे
-आचारांग (सं. मधुकरमुनि), १/२/३/७५ २६. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, संग्रहकर्त्ता विजयमूर्ति, - लेख क्रमांक ८,३१,४१,५४,६२,६७,६९.
जैन धर्म में नारी की भूमिका
२७अ आवश्यकचूर्णि जिनदासगणि, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, भाग १, पृ. ५५४
ब. भक्तपरिक्षा, १२८
स. तित्थोगालिअ ७७७
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२८. आचारांग, सं. मधुकरमुनि, १/२/६/१०२
कालावधि ईसा की ५वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने युग के सन्दर्भों के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं। इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन समाज में खोजा जा सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की मनः प्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते हैं। उदाहरण के रूप में मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना है। वस्तुतः वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं। अतः आगमों और आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित किया जा सकता है
१. पूर्व युग ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक ।
२. आगम युग ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की पाँचवीं शताब्दी तक ।
३. प्राकृत आगमिक व्याख्या युग ईसा की पाँचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक ।
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४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक ।
इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों
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