________________ से शरीर का सुक्ष्म संचलन व दृष्टी के सुक्ष्म संचलन के अपवादों को छोड़ने का निर्देश दिया है। इन सारे अपवादो का अन्त्थसुत्र में विवरण देते हुओ कायोत्सर्ग का प्रत्याख्यान/पचकखाण किया जाता है। उक्त शारीरीक विकारों के अतिरिक्त ध्यान में भय के कारण से स्थान छोड़ने की अनुमति भी दी गई है। इन भयों में प्रमुख, अग्नि व विद्युत प्रकोप, बिल्ली चुहों का भय, पन्चेन्द्रीय जीव के छेदन का भय, चोर व राजा का भय, सिंह सर्प का भय तथा दीवार गिरने का भय प्रमुख है इनमें से किसी भी भय के उपस्तिथ होने पर स्थान छोडने से ध्यान भंग हुआ हीं माना जाता है। इन विकारों व भय के अतिरिक्त ध्यान में शरीर सन्चलन के लिये दायित्वाधीन कोई तत्त्व शेष नहीं रह जाता है। जिस तरह धर्म ध्यान अकाकार है उसी प्रकार का सम्बंध ध्यान व मौन का भी है। मौन होने पर ही व्यक्ति अपने विचारों के प्रवाह को रोकने का प्रयास कर सकता है। विचार प्रवाह रुकना ध्यान की सार्थकता है। विचार प्रवाह, मन को अकाग्र नहीं होने देता है विचार प्रवाह ध्यान का प्रबल शत्रु माना गया है विचार प्रवाह से मन में होने वाली चन्चलता के कारण ही मन को बन्दर की उपमा दी जाती रही है। ध्यान किसका किया जाये यह अक प्रमुख प्रश्न उठता है। यह प्रश्न भी तभी तक सारभूत रहता है जब तक कि मन अकाग्र न हो जाये। जैन धर्म में सर्वाधिक जोर नमस्कार महामन्त्र के ध्यान करने पर दिया गया/जाता है फिर भी तीर्थंकरों, गणघरों, प्रभावक आचार्यो, देवी देवताओं व विशेष सुत्रों का ध्यान किया जाना असंगत नहीं माना गया है। धर्म ध्यान व शुक्लध्यान ध्याना जैन मतावलम्बियों के लिये आवश्यक माना गया है। शुक्ल ध्यान में आत्मा स्व चिन्तन में लग जाती है। वह कहां से आई कहां जाना, क्या लक्ष्य है, अभी तक क्या कर लिया है, लक्ष्य पर पहुंचने का मार्ग मिला या नहीं, इन बातों का ध्यान करने लगती है। क्यों कि आत्मा का लक्ष्य अब बन्धनों को तोडकर सिध्ध स्थान में अपनी जगह बनाना है। शुक्ल ध्यान कषाय बन्धनो से आत्मा को मुक्त कर क्षपक श्रेणी पर पहुंचाता है। मरुदेवी व भरत चक्रवर्ती ने ऐसा ही ध्यान करके योग्य भावना भाकर केवलज्ञान व सिध्धस्थान प्राप्त किया था। ध्यान की ऐक आवश्यकता स्थान की निरापदता भी है। चाहे जहां ध्यान करना सुसंगत नहीं माना गया है। मनशद्धि शरीरशुद्धि के साथ ही शुद्ध निरापद व भय रहित स्थान ध्यान के लिये उपयुक्त है। कोलाहल से ध्यान भंग होता है। आस पास के वातावरण का भी ध्यान पर प्रभाव पड़ता है शुध्द सात्विक व धार्मिक वातावरण से परिपूर्ण स्थान ध्यान में सहायक होते है। सगुण व निर्गुण दोनों प्रकार के ध्यान के लिये सिद्धासन व पदमासन की स्थिति योगशास्त्र में सर्वश्रेष्ठ कही गई है। सारी अन्य सहायक परिस्थितियों के उपरान्त भी मन की चन्चलता पर नियन्त्रण के बिना ध्यान असम्भव है। कोशा गणिका की चित्रशाला में मन पर नियन्त्रण करके स्थुलिभद्रजी ने ध्यान किया जबकि मन पर नियन्त्रण न रह पाने के कारण निर्जन गुफा में रथनेमि मुनि का मन विचलित होने के उदाहरण हमें मिलते है। प्रयत्न से/यत्नपूर्वक ध्यान किया जाये तो निश्चित रुप से मन को अकाग्र करके आत्मा का बाहर से सम्बंध तोड कर अपने लक्ष्य की और ध्यान आत्मा को निर्बाध रुप से प्रवाहमान कर देता है। काश आर्तध्यान व रौद्रध्यान से दूर रह कर शुक्ल ध्यान व धर्म ध्यान हम कर पायें. इत्यलम 346 औषधि मंत्र तंत्र भी हर बार कार्य नहीं करते, हर बार सफल नहीं होते। ये भी कर्म के प्रभाव को नष्ट नहीं कर पाते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org